सबसे पहले तो मैं ‘पाञ्चजन्य’ पत्रिका की पूरी टीम को बधाई देता हूं कि आज आप लोग अपनी यात्रा में एक बड़ा ही महत्वपूर्ण मील का पत्थर पार कर चुके है। आजाद भारत की प्रमुख साप्ताहिक पत्रिकाओं में राष्ट्रवादी विचारधारा से ओत-प्रोत ‘पाञ्चजन्य’ का अपनी यात्रा के 75 वर्ष पूरा कर लेना भारतीय पत्रकारिता जगत की एक महत्वपूर्ण घटना है।
साथियों, भारत में पत्रकारिता की शुरुआत ही सामाजिक सुधारों और आजादी के हथियार के तौर पर हुई थी। उस वक्त पत्रकारिता एक मिशन थी। देश को आजाद कराने की। गुलामी से मुक्ति पाने की। आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता जागृति और जोश पैदा कर रही थी। शायद इसीलिए अकबर इलाहाबादी ने लिखा- “खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो। जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो।।”
अंग्रेजी शासन के दमन और शोषण के खिलाफ पत्रकारिता लामबंद हुई। कई संपादकों और पत्रकारों ने आजादी के ‘शस्त्रहीन’ संघर्ष में अपनी आहुति दी। खतरे झेले। यातनाएं सही। पर विचलित नहीं हुए। स्वाधीनता की अग्नि में तपकर भारत में पत्रकारिता फली-फूली।
पत्रकारिता अपने चिरंतन मूल्यों में बुद्धिमान समाज की सबसे उद्देश्यपरक शक्ति है। कभी वह अंग्रेजों के दमनकारी ताकत के खिलाफ लड़ती थी। तो कभी उसने आपातकाल की निरंकुशता और तानाशाही के खिलाफ संघर्ष किया। तो कभी वह सत्ता की ताकत के दुरुपयोग को रोकने का स्वर गुंजाती है। कभी वह किसी विचार का प्रसार कर सकती है। तो कभी वह किसी विचार का निषेध भी। यही उन्नत होते हमारे लोकतांत्रिक समाज का प्राण है। पत्रकारिता कला, विलास या मनोरंजन नहीं है। यह कर्तव्यनिष्ठ, उद्देश्यपरक, राष्ट्रनिर्माण का साधन है।
साथियों, प्रकृति से हम दो प्रकार के तत्वों से घिरे हैं एक है बहुमूल्य और दूसरा अमूल्य। बहुमूल्य शब्द अर्थशास्त्र से आता है। वह वस्तुएँ जो कम हैं। उनकी कीमत अधिक है। यह आवश्यक नहीं कि वह वस्तु सबके लिए जरूरी हो। ऐसा भी नहीं कि इसके बिना काम नहीं चल सकता। लेकिन जिन्हें यह चाहिए उनके लिए पर्याप्त नहीं है। जैसे सोना, चांदी, हीरा आदि। अमूल्य वह है जो सबको चाहिए और जिसका कोई विकल्प नहीं है। जैसे हवा, पानी, आकाश इनका कोई मूल्य नहीं है। लेकिन यह अमूल्य हैं क्योंकि उसके बिना जीवन नहीं हो सकता।
पत्रकारिता को मैं अमूल्य वर्ग का तत्व मानता हूँ। प्राणवायु जैसा। पत्रकारिता सभ्य मानव जीवन की प्राणवायु है। लोकतंत्र से पहले भी समाज में पत्रकारिता जैसा दायित्व निभाने वाली कलाएँ, दक्षताएं और व्यवस्थाएँ थी। भारत में प्राचीन नाटक, ग्रंथ, काव्य जो इस उद्देश्य को पूरा करते थे।
आजादी से पहले पत्रकारिता के तीन चेहरे थे। पहला- आजादी की लड़ाई को समर्पित, दूसरा- सामाजिक उत्थान के लिए समर्पित और तीसरा चेहरा- समाज सुधार और रूढ़ियों और कुरीतियों का विरोध करने वाली पत्रकारिता का था। तीनों को आजादी का महाभाव जोड़ता है। इन्हीं तीनों घटनाओं का संगम हमे भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में मिलता है। आजादी के बाद पत्रकारिता लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर अपनी भूमिका निभाती रही।
19वीं शताब्दी राष्ट्रीय नवजागरण के जनमत के अंकुरण का काल था। इस दौर में पत्रकारिता का तेजी से विकास हुआ। पत्रकारिता ने सिर्फ सामाजिक चेतना ही नहीं, बल्कि समाज के विभिन्न आयामों में जागरूकता फैलाने का काम किया।
राजा राममोहन राय जिन्हें भारतीय पत्रकारिता का जनक माना जाता है। वे मूलत: समाज सुधारक थे। उनकी प्रेरणा से तीन प्रमुख अखबार निकले- 1- सम्वाद कौमुदी (बांग्ला, 1821), 2- मिरातुल अखबार (फारसी, 1822), 3- ब्राह्मिनिकल मैगजीन (अंग्रेजी, 1821)। इस दौर की हिन्दी पत्रकारिता ने न केवल सामाजिक व धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ जनमानस में जागरूकता फैलायी बल्कि ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध मुक्ति की मानसिकता को तैयार करने में सहायक बनी।
स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता को संविधान का चौथा स्तम्भ कहा जाने लगा। इसलिए कि वह जनता की आवाज को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बना समाज और समय के सच को निरंतर उजागर करती थी। पत्रकारिता, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक सेवा सेतु बनी। जो हमारे लोकतंत्र को गतिशील बनाती थी। उसे तीसरी आँख भी कहा गया। जब शिव की तीसरी आँख खुलती है तो विनाश होता है। लेकिन पत्रकारिता की तीसरी आँख खुलने पर नए समाज का सृजन होता है।
आजादी के बाद दूसरे दशक तक लगता था कि पत्रकारिता समाज का सजग प्रहरी, समाज बदलने और नया समतावादी तथा न्याय आधारित समाज बनाने का माध्यम है। आज आप ऐसी बातें करें तो लोग हंसने लगेंगे। आज लोग तोप का मुकाबला करने के लिए नहीं कुछ और कमाने के लिए अखबार निकालते हैं। इस दौर में शायद अकबर इलाहाबादी गलत हो गए।
इसके बावजूद बहुत सी पत्र पत्रिकाएँ है जो उद्देश्यपरक पत्रकारिता कर रहे हैI इसी उद्देश्यपरक पत्रकारिता से ही समाज और देश के निर्माण की उम्मीद है। पाञ्चजन्य की 75 साल की पत्रकारिता उसी उद्देश्यपरक संकल्पबध्ता का इतिहास है। जिस संकल्प के साथ भारत में पत्रकारिता जन्मी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के फौरन बाद 14 जनवरी, 1948 को आवरण पृष्ठ पर भगवान श्रीकृष्ण के शंखनाद के साथ पंडित दीनदयालजी के दिशा निर्देशन और अटलजी के संपादकत्व में ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक शुरु हुआ। यह पत्रिका स्वाधीनता आंदोलन के प्रेरक आदर्शो एवं राष्ट्रीय लक्ष्यों का स्मरण दिलाते रहने के संकल्प का उद्घोष था। इस पत्रिका का नाम श्री कृष्ण के ‘पाञ्चजन्य शंख’ के नाम पर रखा गया था।
सच्चार्इ यह है, कि पेशे से न तो दीनदयाल जी पत्रकार थे और न ही अटलजी ने पत्रकारिता का कोर्इ कोर्स कर रखा था। ये दोनों विभूतियां एक विचार से प्रेरित होकर पत्रकारिता जगत में आए और इस दायित्व के लिए जिस तरह की दृष्टि और प्रतिबद्धता की आवश्यकता थी, उसका दोनों ने ही निर्वहन किया।
दीनदयाल और अटलजी दोनों के भीतर पत्रकार कम और साहित्यकार का स्वभाव अधिक था। इसके बावजूद दोनों ने मिलकर जहां पत्रकारिता को राष्ट्रवादी तेवर और कलेवर दिया, वहीं देश और समाज में एक जागरूकता भी पैदा की, जिसकी आजादी के तुरंत बाद बहुत अधिक आवश्यकता थी।
‘पाञ्चजन्य’ की शुरूआत उस दौर में हुर्इ जब देश तो आजाद हो चुका था, मगर जिन हाथों में देश की बागडोर थी उनकी जो वैचारिक दिशा थी वह भारतीय मूल्यों और आवश्यकताओं के अनुरूप नही थी।
जब भारत आजाद नही था तब भी हमारे देश के कर्इ राष्ट्रीय नेताओं ने बिना पत्रकारिता की कोर्इ औपचारिक डिग्री लिए हुए पत्रकारिता के माध्यम से देश और समाज का जागरण किया था। इस तरह से पत्रकारों की लिस्ट बहुत लम्बी है जिनमें पंडित मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, लाल लालपत राय, सरदार भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, विनोबा भावे और यहां तक कि बापू भी इस सूची में शामिल है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी इसी राष्ट्रीय परंपरा की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। जब वे पाञ्चजन्य और राष्ट्रधर्म के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय थे उस समय उनका राजनीति में पदार्पण नही हुआ था।
उस समय दीनदयाल जी के लिए पत्रकारिता ही एकमेव मिशन था और सच्चे स्वयंसवेक की तरह वे न केवल स्वयं इस काम को पूरे मनोयोग से कर रहे थे बल्कि साथ-साथ राष्ट्रवादी पत्रकारों की एक पूरी श्रृंखला तैयार कर रहे थे।
मैं कितने नाम लूं। अटलजी का नाम तो मैं ले ही चुका हूं, आडवाणीजी, बालेश्वर अग्रवाल जी, राजीव लोचन अग्निहोत्री जी, वचनेश त्रिपाठी जी, राम शंकर अग्निहोत्री, के.आर. मलकानी जी, यादराव देशमुख जी, देवेन्द्र स्वरूप जी, भानु प्रताप शुक्ल जी ये सारे राष्ट्रवादी पत्रकारिता जगत के दिग्गज, दीनदयालजी की प्रेरणा से काम कर रहे थे।
एक और नाम मुझे याद आ रहा है, वह है तेलू राम काम्बोज जी का जो उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद से ‘प्रलयंकर’ नाम से एक पत्र निकालते है। आप में से कुछ लोग उनसे मिले भी होंगे पर शायद यह नही जानते होंगे कि उनके पत्र का नाम ‘प्रलयंकर’ दीनदयालजी ने ही रखा था।
मैंने किसी किताब में देखा था जहां इस बात का वर्णन है कि दीनदयालजी पहले ‘पाञ्चजन्य’ का नाम प्रलयंकर ही रखना चाहते थे। किन्ही कारणों वश यह संभव न हो सका। मगर अच्छी बात यह है कि दीनदयालजी के प्रेरणा से ‘पाञ्चजन्य’ और ‘प्रलयंकर’ दोनों आज भी प्रकाशित हो रहे हैं।
मेरा तो मानना है कि इस बात पर अलग से शोध किया जाना चाहिए कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की प्रेरणा से देश में कितनी पत्र पत्रिकाओं की शुरूआत हुर्इ और कितनी आज भी प्रकाशित हो रही है। दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेश’ का भी प्रकाशन दीनदयाल जी की ही प्रेरणा से प्रारंभ हुआ था।
भारतीय इतिहास में बहुत कम लोग ऐसे हैं जो प्रकाशक और पत्रकार दोनों ही भूमिकाओं में खरे उतरे हैं। दीनदयालजी की गिनती ऐसे ही महापुरुषों में होती है।
‘पाञ्चजन्य’ के शुरूआती दिनों में क्या-क्या समस्याएं नही आती थी। संसाधनों का अभाव से लेकर शासन सत्ता का पूरा विरोध झेलना। दीनदयालजी और अटलजी संपादन, प्रूफ रीडिंग, प्रकाशन से लकर कर्इ बार प्रकाशित सामग्री का बंडल खुद सार्इकिल पर लेकर हाकरों तक पहुंचाने जाते थे। कार्य के प्रति यह निष्ठा, समर्पण, लगन अपने आप में अतुलनीय और अनुकरणीय है।
साथियों, उस समय सत्ता में बैठे हुक्मरानों की टेढ़ी नजर हमेशा ‘पाञ्चजन्य’ पर सबसे पहले पड़ती थी। अभी ‘पाञ्चजन्य’ को शुरू हुए महीना भी नही बीता था कि बापू की हत्या से उपजे वातावरण का फायदा उठाते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इसके प्रकाशन पर रोक लगा दी। फिर कोर्ट ने राहत दी तो बमुश्किल से कुछ महीने प्रकाशन चला, फिर रोक लग गर्इ।
‘पाञ्चजन्य’ पर बार-बार लगार्इ जा रही जबरदस्ती की रेाक न केवल राष्ट्रवादी पत्रकारिता पर हमला था बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी पूरा हनन था।
जब 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू किया गया तो Article 19 में हर भारतीय नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान निर्माताओं ने सुनिश्चित की।
मगर राष्ट्रवादी विचारधारा को कुचलने के लिए जल्द ही तत्कालीन शासकों ने भारतीय संविधान में संशोधन करते हुए उस पर पाबंदियां लगा दी।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए जहां विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच ‘Separation of Power’ का सिद्धान्त लागू किया जाता है, वहीं मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, उसकी स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी लोकतंत्र की मजबूती के लिए बेहद जरूरी है।
हमारे संविधान निर्माताओं ने Article 19 के माध्यम से यह सुनिश्चित भी किया। फिर ऐसा क्या हुआ कि 1951 में यानि एक साल के बाद ही उस संविधान में संशोधन करने की नौबत आ गर्इ जिसे ‘दुनिया का सबसे उत्तम संविधान’ माना गया।
कारण बहुत साफ था। कांग्रेस पार्टी जो उस समय पूरे देश पर एकक्षत्र राज कर रही थी उसे विरोध सुनना गवारा नही था। लोकतंत्र में विरोध का अधिकार हर व्यक्ति को है। मगर कांग्रेस किसी भी किस्म की आलोचना को दबाने के लिए इतनी उतावली थी कि संविधान को ही बदल डाला।
मैं दो पत्रिकाओं का यहां नाम लेना चाहूंगा। एक थी ‘क्रास रोड्स’ जो वामपंथी विचार से प्रेरित थी और मद्रास से निकलती थी। दूसरी थी इसी विचार परिवार की मैगजीन ‘Organiser’. ये दोनों ही पत्रिकाएं कांग्रेस को इतनी नागवार गुजरी कि प्रतिबंद्ध लगा दिए गए। मगर जब कोर्ट ने फैसले उलट दिए तो उसके बाद संविधान में संशोधन करने का मन बनाया।
संविधान में पहले संशोधन को पारित करने के लिए कर्इ दिनों तक बहस चली। सदन में कांग्रेस का बहुमत था इसलिए बिल तो पारित होना ही था। मगर जो बहस इस बिल पर सदन में हुर्इ है उस दौरान डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो जोरदार बहस की है, वह आज भी उतनी प्रासंगिक है जितनी 1950 के दशक में थी।
मैं मानता हूं कि आजाद भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर जिस तरह की वकालत हमारे प्रेरणा स्रोत और मार्गदर्शक डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने की है वह अपने आपमें बेमिसाल है। उसके बारे में हर भारतीय को जानना और समझना चाहिए। मेरी दृष्टि में आजाद भारत में Freedom of Speech और Freedom of Expression के सबसे बड़े पैरोकार हमारे नेता और प्रेरणास्रोत डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे।
आज देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर फिर से एक बहस छिड़ी हुर्इ है। मजे की बात यह है कि जो लोग आज मीडिया की स्वतंत्रता का हनन का आरोप लगाते है वह भूल जाते है कि चाहे अटलजी रहे हो या मोदीजी की सरकार हो उन्होंने कभी भी किसी भी मीडिया हाऊस पर न तो कोर्इ रोक लगार्इ और न ही किसी पर प्रतिबंद्ध लगाया। जबकि कांग्रेस सरकार ने तो संविधान संशोधन तक कर डाला। जो लोग कांच के घरों में रहते है उन्हें दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए। कांग्रेस पार्टी का पूरा इतिहास हर तरह की स्वतंत्रता को हनन करने की घटनाओं से भरा पड़ा है।
साथियों, ‘पाञ्चजन्य’ की यात्रा साधनों के अभाव और सरकारी प्रकोपों के विरुद्घ राष्ट्रीय चेतना की जिजीविषा और संघर्ष की प्रेरणादायी गाथा है। ‘पाञ्चजन्य’ ‘राष्ट्रीयता का प्रहरी’, ‘सांस्कृतिक चेतना का अग्रदूत’ और ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं शौर्य का स्वर’ बना रहा। ‘पाञ्चजन्य’ स्वाधीनता आंदोलन की मूल प्रेरणाओं से जोड़े रखने के साथ ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए खतरा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों एवं शक्तियों के खिलाफ लगातार चेताता रहा।
‘पाञ्चजन्य’ ‘राष्ट्रधर्म’ जैसी पत्रिकाओं की विश्वसनीयता बनाने के लिए दीनदयालजी और अटलजी ने मिलकर परिश्रम किया है क्योंकि Credibility ऐसे ही नहीं बनती।
जब मिशन की स्पष्टता होती है तो दमन से आपको दबाया नही जा सकता। किसी भी ताकत के आगे न झुकना ही पत्रकारिता की असली ताकत है।
जब बिना कारण बताए, उस समय की कांग्रेस सरकार ने ‘पाञ्चजन्य’ का प्रकाशन बंद कराया तो दीनदयालजी ने ‘हिमालय’ का प्रकाशन किया। ‘हिमालय’ पर रोक लगी तो ‘राष्ट्रभक्त’ निकलने लगा। यानि चाहे कितना भी दबाव क्यों न हो यदि आप अपने पत्रकारिता के मिशन से डिग जाते है तो आपकी विश्वसनीयता संकट में पड़ती है।
आज मैं देखता हूं कि तनिक भी विपरीत परिस्थिति पड़ने पर कुछ लोग अपनी धारा बदल लेते हे। ऐसे में विश्वसनीयता का संकट स्वाभाविक है। जब देश में आपातकाल लगा तो हम सबने देखा कि किस तरह एक बड़े मीडिया वर्ग ने सत्ता के सामने रेंगना शुरू कर दिया।
मैं ‘पाञ्चजन्य’ की विश्वसनीयता को प्रामाणिक मानता हूं क्योंकि किसी भी दबाव या दमन के कारण आपने अपने विचार की दिशा नहीं बदली और देश हित में जो कुछ भी लगा उसे बेबाकी से रखा है।
चाहे 1962 का समय हो या आपातकाल का समय रहा हो। ‘पाञ्चजन्य’ ने हमेशा उन मुद्दों की बात उठार्इ है जो देश और समाज हित से जुड़े होते है। यदि मैं कहूं कि अपने 75 वर्षों की लंबी यात्रा में ‘पाञ्चजन्य’ ने ‘राष्ट्रहित के प्रहरी’ के रूप में काम किया है तो अतिश्योक्ति नही होगी।
साथियों, आप सब जानते हैं कि भारत में पत्रकारिता का जन्म ही विदेशी आक्रांताओं से लड़ने के लिए हुआ था। एक अंग्रेज बहादुर जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने जो पहला अखबार इस देश में निकाला। वह भी धंधे और मुनाफे के लिए नहीं था। उसका उद्देश्य भी ईस्ट इंडिया कंपनी के घोटालों का भंडाफोड़ करना था। हिक्की के कुछ बिल सरकारी दफ्तरों में रोके गए थे। जिसके लिए रिश्वत मांगी जा रही थी। उसके विरोध में हिक्की ने भारत में पत्रकारिता की शुरुआत कर दी।
यानी भारत में किसी अंग्रेज ने अखबार निकाला तो अंग्रेजी प्रतिष्ठान के खिलाफ ही निकाला। इसलिए हमारे यहाँ पत्रकारिता का मूल स्वभाव ही प्रतिष्ठान विरोधी रहा है। उसका काम अन्याय से लड़ना और सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाना था। भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र ने उद्देश्यपरक और प्रयोगधर्मी पत्रकारिता की अलख जगाई। 1877 में पं. बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिन्दी प्रदीप’ निकाल मिशन पत्रकारिता की शुरुआत की। महामना मालवीय ने अपने दृढनिश्चयी पत्रकारिता से आजादी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के औजार गढे। गांधीजी ने अपने पत्रों के जरिए समाज और राजनीति को नई दिशा दी। और आजादी के अहिंसक आंदोलन को वैचारिक आधार दिया। आजादी की लड़ाई में सूचना और संवाद के लिए पत्रकारिता इतना ताकतवर जरिया बना कि देश को आजाद कराने में लगे लगभग सभी नेताओं को अपने अखबार निकालने पड़े। अगर हम यह कहें कि हमारी स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि पत्रों और पत्रिकाओं ने ही तैयार की तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
यह सही है कि स्वतंत्रता के बाद, भारत में प्रेस ने प्रहरी की भूमिका निभाई और जनता की समस्याओं और उनकी आकांक्षाओं का प्रतिबिंब रही। इस देश में लोकतंत्र की रक्षा करने और उसे सुदृढ़ बनाने के प्रमुख स्तंभों में से एक पत्रकारिता रही है। आज, मीडिया का परिदृश्य हजारों पत्रिकाओं एवं समाचार-पत्रों, सैंकड़ों टी.वी. चैनलों और अनेकों रेडियो स्टेशनों से भरा हुआ है। निस्संदेह, हमारे पास सोशल मीडिया भी है जो इस डिजिटल युग में सूचना-सम्प्रेषण के प्रमुख साधनों में से एक बन गयी है।
किसी समाचार-पत्र अथवा समाचार चैनल को चलाने का उद्देश्य केवल वाणिज्यिक हित नहीं होना चाहिए। मैं समाचार-पत्रों और टी.वी. चैनलों से रातों-रात दानशील संगठन बनने के लिए नहीं कह रहा हूँ अपितु सामाजिक दायित्वों और व्यापारिक उद्यमों के बीच थोड़ा संतुलन साधने की आवश्यकता है।
मैं यह महसूस करता हूँ कि आजकल के पत्रकारों को सटीकता, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता, समाचारों की उपयुक्तता और स्वतंत्रता के बुनियादी मूल्यों का पालन करना चाहिए। अपने प्रतिद्वंद्वियों अथवा प्रतिस्पर्धियों को हराने की होड़ में गलत खबरें नहीं दी जानी चाहिए।
साथियों, यह भी एक सुखद संयोग है कि जहां ‘पाञ्चजन्य’ आज अपने अमृतकाल में प्रवेश हो रहा है वहीं भारत भी अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इसलिए हम कह सकते है कि आज जहां हम राष्ट्रवादी पत्रकारिता का जहां उत्सव मना रहे है वहीं हम भारत की स्वतत्रंता के अमृतकाल को भी समृद्ध कर रहे हैं।
‘पाञ्चजन्य’ केवल समाचार-विचार का माध्यम मात्र नही है बल्कि राष्ट्रवादी विचार का दर्शन और अभिव्यक्ति भी है। लोग कर्इ बार पूछते हैं कि राष्ट्रवादी पत्रकारिता क्या होती है और उसकी क्या Credibility है ऐसे लोगों को तो मैं यही कहना चाहूंगा कि उन्हें दीनदयालजी द्वारा ‘पाञ्चजन्य’ में लिखे गए ‘विचार वीथी’ स्तम्भ और ‘आर्गेनार्इजर’ में लिखे गए ‘पोलिटिकल डायरी’ कालम को जरूर पढ़ना चाहिए।
उनके द्वारा लिखे गए ये कालम्स और समय समय पर लिखे गए उनके लेख उस समय देश के सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक नीतियों पर बेबाक टिप्पणी करते हैं। वे बातें आज भी उतनी ही प्रासांगिक है, जितनी उस समय थी।
एक लेखक और पत्रकार के साथ साथ संपादक के रूप में भी दीनदयालजी का ‘पाञ्चजन्य’ पर खासा प्रभाव पड़ा। एक घटना मैंने कहीं पढ़ी थी कि जब हेड लार्इन लगार्इ जा रही थी कि ‘अकाल तख्त का काल’ तब उन्होंने उसको बदलवाया और बोले कि हमें सनसनी बनने और बनाने से परहेज करना चाहिए। कभी कोर्इ ऐसी Headline नही लगनी चाहिए जो लोगों में भावना और उत्तेजना भड़काए। यह घटना एक ‘Responsible Jouranlism’ का अच्छा उदाहरण है।
दीनदयालजी की तरह अटलजी ने भी ‘पाञ्चजन्य’ को अपने परिश्रम में सजाया-संवारा है। अटलजी एक राजनेता थे, कवि थे, लेखक और संपादक की भूमिका भी उन्होंने निभार्इ।
उनके भीतर का पत्रकार और कवि और अधिक निखर कर आया होता मगर अक्टूबर 1951 में वे नवगठित भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य बने और उनकी दिशा बदल गर्इ। राजनीति में अधिक सक्रिय होने के बावजूद अटलजी का ‘पाञ्चजन्य’ और हिंदी पत्रकारिता से जुड़ाव हमेशा बना रहा।
मुझे जानकारी दी गर्इ है कि 1998 में जब ‘पाञ्चजन्य’ ने अपनी स्वर्ण शताब्दी मनार्इ थी तो वे मुख्य अतिथि के रूप में आप लोगों के बीच आए थे। इसलिए आज जब ‘पाञ्चजन्य’ अपनी स्थापना के 75 वर्ष मना रहा है तो मैं इस कार्यक्रम में आकार अनुगृहीत महसूस करता हूं।
साथियों, कर्इ बार लोगों को लगता है कि ‘कोरपोरेट मीडिया’ के इस समय में कहीं हिंदी पत्रकारिता पीछे न छूट जाये। मगर मेरा यह मानना है कि भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है।
भारत की आजादी के अमृतकाल में तो भारतीय भाषाओं का महत्व और बढ़ने वाला है क्योंकि देश अब औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलने का संकल्प ले चुका है। इसलिए आने वाले समय में ‘भारत की बात’ भारतीय भाषाओं में ही होगी।
हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी इस दिशा में पूरे संकल्प के साथ काम कर रहे है। उनका मानना है कि भारतीय प्रतिभा और उनकी रचनात्मकता का समुचित विकास भारतीय भाषाओं में ही संभव है। आप कल्पना करें जब भारतवासी अपनी उन मातृ भाषाओं में विचार करेंगे जिस भाषा में वे सांस लेते हैं, तो देश की रचनात्मक शक्ति में कितनी भारी वृद्धि होगी।
आज नर्इ शिक्षा नीति के माध्यम से छात्रों को इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ार्इ भी हिंदी भाषा में शुरू करा दी गर्इ है। भाषाई पत्रकारिता भी भारतीय भाषाओं के विकास से लाभान्वित होगी।
साथियों, मीडिया इस देश और समाज का अभिन्न अंग है। हाल के वर्षों में हमने देखा है कि मीडिया ने काफी सकारात्मक और रचनात्मक भूमिका भी निभार्इ है। कोरोना के संकट के समय पत्रकारों ने कर्मयोगियों की तरह काम किया और यहां तक कि स्वच्छ भारत अभियान की सफलता में उनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी तरह आज देश में डिजिटल पेमेंटस के बारे में जागरूकता बढ़ाने में भी मीडिया की सकारात्मक भूमिका रही है।
आज जब देश अमृतकाल के दौरान एक आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी भारत की दिशा में काफी आगे बढ़ चुका है मीडिया को इस दिशा में भी सहयोग करने की जरूरत है। मैं यह नही कहता कि मीडिया को आलोचना नही करनी चाहिए मगर जहां देशहित का सवाल हो वहां आलोचना के लिए आलोचना ठीक नही है।
समाज में पत्रकार का भी वही स्थान होता है जो एक शिक्षक का होता है। जो समाचार के साथ छेड़छाड़ करता है वह पत्रकार नहीं हो सकता है। समाचार चयन में पक्षपात नही होना चाहिए। पाञ्चजन्य में कर्इ बार अपने लेखों में दीनदयालजी सरकार की आलोचना करते थे मगर उनके मन में किसी के प्रति अपमान का कटुता का भाव नहीं था। राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए अपनी बात मजबूती से रखना ही स्वस्थ पत्रकारिता है।
साथियों, आज जब भारत आत्मनिर्भर होने की दिशा में आगे बढ़ रहा है तो उसकी आधारशिला देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा की मजबूती पर तैयार हो रही है।
देश का रक्षामंत्री होने के नाते मैं आपको यह भरोसा देना चाहता हूं कि आज भारत उसी दिशा में बढ़ चला है जिसकी कल्पना 75 साल पहले पंडित दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी और बाद में अटलजी जैसी महान विभूतियों ने की थी।
इस देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाना, रक्षा की जरूरतों की पूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर बनना और यहां तक कि भारत को एक परमाणु शक्ति बनाने का सपना तो दीनदयालजी का ही सपना था। जिसके बारे में उन्होंने अनेक अवसरों पर पाञ्चजन्य में भी लिखा था।
आज हमारे सामने अवसर है, क्षमता भी है, हमारा संकल्प भी है कि हम भारत को पुन: विश्वगुरू के पद पर आसीन करेंगे। पाञ्चजन्य की आधारशिला भी इसी धरातल पर रखी गर्इ थी। अमृतकाल उस संकल्प की सिद्धि का अवसर है। हमें उसी दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है।
इससे अधिक आज के इस अवसर पर कुछ न कहते हुए पाञ्चजन्य के संपादक मंडल और पूरे भारत प्रकाशन समूह को अपनी शुभकामनाएं देते हुए अपना निवेदन समाप्त करता हूं।