‘पण्डित दीनदयाल उपाध्याय: जीवन दर्शन और समसामयिकता’ पुस्तक के विमोचन समारोह में रक्षामंत्री श्री राजनाथ सिंह का संबोधन

सबसे पहले मैं,एकात्म मानववाद के प्रणेता, और भारतीय राजनीति में शुचिता, और प्रामाणिकता के नए प्रतिमान गढ़ने वाले महामानव, पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती की पूर्व संध्या पर उन्हें स्मरण और नमन करता हूं।

आज हम सब उनके जीवन दर्शन, और उनके दर्शन की समसामयिकता पर, पांच खंडों में प्रकाशित पुस्तक के विमोचन के लिए यहां उपस्थित हुएहैं। इन पुस्तकों का संपादन आदरणीय बजरंग लालजी गुप्त ने किया है, जिन्हें मैं मौजूदा समय में भारत के सबसे सम्मानित आर्थिक चिंतक, और विचारक के रूप में देखता हूं।

यह पुस्तक पांच खंड में, दीनदयाल जी के पांच वैचारिक पक्षों की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत करती है। पहले खण्ड में एकात्म मानव दर्शन की व्याख्या की गई है। दूसरा खंड राष्ट्र, समाज एवं सांस्कृतिक जीवन पर केन्द्रित है। तीसरा खंड उनके आर्थिक चिंतन, जिसमें उद्योग, कृषि, सहकारिता और कुटीर उद्योग के बारे में है। खंड चार भारत की दो पंचवर्षीय योजनाओं का विश्लेषण है, और अंतिम खंड है कश्मीर समस्या। ये सभी खंड मिलकर पंडित जी की मुकम्मल वैचारिकी को हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।

साथियों,पंडित दीनदयाल उपाध्यायजीद्वारा मानवता को एक अनमोल देन एकात्म मानववादहै। यहभारतीय समाज की परिस्थितियों और आवश्यकताओं की उपज है, जिसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने एक दर्शन के रूप में हमारे सामने उपस्थित किया।पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने ‘एकात्म मानववाद’ का प्रतिपादन नहीं किया, ‘एकात्म मानववाद’ को उत्पन्न नहीं किया, उसे गढ़ा नहीं, रचा नहीं, बल्कि उसके द्रष्टा बने और उसे उजागर किया, उसे प्रस्तुत किया।

‘एकात्म मानववाद’ भारतीय मन की प्रकृति है, भारतीय मन का संस्कार है, जो आज से नहीं, सदियोंसदियों से चला आ रहा है।पंडित जी भारतीय संस्कृति की पहली, एवं एक महत्त्वपूर्ण विशेषता को उजागर करते हुए कहते हैं, कि यह संपूर्ण जीवन का, संपूर्ण सृष्टि का, संकलित विचार करती है। इसका दृष्टिकोण एकात्मवादी, अर्थात integral है। टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, देश के सामने समस्या खड़ी हुई कि देश को किस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। देश के सामने अनेक दिशाएं थीं। पश्चिम में प्रचलित राष्ट्रवाद की अपनी अवधारणा थी। प्रजातंत्र की अपनी अवधारणा थी। इसके साथ एक ओर capitalism था, तो दूसरी ओर socialism. इन सभी व्यवस्थाओं की अपनी-अपनी विशेषताएँ थीं और खामियाँ भी थीं। कोई भी विचार अपने में पूर्ण नहीं। इसके अलावा पंडित जी कहते हैं, इन सभी विचारों का आदर्श, व्यवहार में एक दूसरे के लिए घातक बन जाता है।

वह कहते हैं, पश्चिम से प्रचलित राष्ट्रवाद विश्वशांति के लिए खतरा पैदा करता है। प्रजातंत्र पूंजीवाद के मेल से शोषण का कारण बन गया। पूंजीवाद को समाप्त कर समाजवाद आया, तो उसने प्रजातंत्र, तथा उसके साथ ही व्यक्ति की स्वतंत्रता की ही बलि ले ली। यानी इन सभी विचारों में अनेक अच्छी बातें हैं, पर इन सभी अच्छी बातों के बीच तालमेल कैसे बिठाया जाए, यह एक यक्षप्रश्न उपस्थित था, स्वतंत्र भारत के सामने।

जहाँ से इन विचारों का उदय हुआ था, यानी पश्चिम, वह भी, इन विचारों के बीच तालमेल बिठाने का कार्य नहीं कर पाया। पश्चिम को अपने इतिहास में जितनी विकृतियां झेलनी पड़ीं, जितनी तकलीफें पैदा हुईं, उनका यही कारण है, कि उसने मानव को एक सीमित दृष्टिकोण से देखा,और उसके एक हिस्से पर ही विचार किया। एक सिरा पकड़ा, तो दूसरा सिरा छूटा, दूसरा पकड़ा तो तीसरा छूटा।

पंडित जी ने इसी का विवेचन विश्लेषण किया, कि उनके जीवन में तमाम समृद्धि के बाद भी, वे सुखी नहीं हैं। यानी उनकी जीवन पद्धति में कहीं न कहीं कोई मौलिक कमी अवश्य है। इसका कारण वह बताते हैं, कि पश्चिम के लोग मानव पर समग्र तरीके से विचार नहीं कर पाए। उन्होंने मनुष्य को केंद्र में रखा, और उसे मात्र एक consumption machine की दृष्टि से देखा, और समस्त भौतिक संसाधनों को उसकी पूर्ति का माध्यम समझा। अब उपभोग का तो कहीं कोई अंत है नहीं, इच्छाओं का कोई अंत तो है नहीं, पर संसाधनों की सीमा जरूर है।

पर उपभोग की इच्छा पूर्ण न होने पर मानव, या तो अवसाद से गुजरता है, या फिर उपभोग की पूर्ति के लिए असामाजिक कृत्यों में लिप्त होता है।यह दोनों ही स्थितियाँ समाज और व्यक्ति के लिए हितकर नहीं हैं। आप सभी Japanese जीवन-दर्शन इकिगाई के बारे में जानते होंगे।इसके अनुसार स्वस्थ और लंबा जीवन इस बात पर भी निर्भर करता है, कि कोई मनुष्य अपने परिवार और समाज से कितना जुड़ा हुआ है। पर मनुष्य को केंद्र में रखने, और मात्र उसकी individuality को प्राथमिकता देने का यह भी परिणाम हुआ, कि मनुष्य धीरे-धीरे आत्मकेंद्रित होने लगा। प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने संकीर्ण हितों को ऊपर रखने लगा, और समाज से कटनेलगा। यह मानव के ऊपर, एकांगी दृष्टि से विचार करने का ही परिणाम था।

ऐसे में पंडित दीनदयाल उपाध्याय, मानव के ऊपर संपूर्णता में विचार करते हैं। वह मानव को तन, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय बताते हैं, और इन चारों की प्रगति को ही मानव की प्रगति बताते हैं।व्यक्ति के व्यक्तित्व का समग्र विकास, इन चारों की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करके ही संभव है।अब इनकी आवश्यकताएं क्या हैं, इन पर भी विचार करें। तन के सुख के लिए, धनधान्य चाहिए। मन के सुख के लिए मान, सम्मान, स्वाभिमान चाहिए। बुद्धि के सुख के लिए ज्ञान चाहिए। और आत्मा के सुख के लिए भगवान चाहिए। हमारे यहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की जो संकल्पना की गई है, आप देखेंगे तो ये पुरुषार्थ चतुष्टय भी तन, मन, बुद्धि और आत्मा से ही जुड़े दिखाई देंगे। मानव के सुख के लिए धन-धान्य, मान, सम्मान, स्वाभिमान, ज्ञान, और भगवान, सबकी आवश्यकता होती है। ‘एकात्म मानववाद’ इन सब पर समग्रता से विचार करता है।

साथियों, तन, मन, बुद्धि और आत्मा की अवधारणा केवल मनुष्य पर ही लागू नहीं होती है। पंडित जी मानते हैं कि यह अवधारणा समाज और राष्ट्र पर भी उसी तरह लागू होती है।प्रत्येक समाज और राष्ट्र का भी अपना एक मन होता है, बुद्धि होती है और आत्मा होती है।समाज और राष्ट्र की भी अपनी एक जीवमान सत्ता होती है।जिस प्रकार शरीर में अनेक प्रकार के परिवर्तन होने के बाद भी आत्मा एक रहती है, और वह मनुष्य, निरंतरता में जीवित रहता है। उसी प्रकार राष्ट्र में भी अनेक प्रकार के परिवर्तन होने के बावजूद,उसकी आत्मा चिरकाल तक जीवित रहती है, और वही उस राष्ट्र को परिभाषित करती है।पंडित जी राष्ट्र की आत्मा या प्रकृति को, यानि उसके घनीभूत सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों को राष्ट्र कीचितिके रूप में परिभाषित करते हैं।

साथियों, मानव जीवन को दो प्रमुख दृष्टियों से देखा जा सकता है। पहली दृष्टि व्यष्टिगत दृष्टि है। मान लीजिए कोई मनुष्य है। मैं हूँ, या आप हैं। हमारा अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। हमारी उपलब्धि, हमारी चिंता, हमारे विचार, सभी हमारे अपने हैं। यह जीवन की व्यष्टिगत दृष्टि है।पर इसके साथ ही हम देखें, तो कोई इंसान पहले अपनी माता और पिता का पुत्र होता है। वह किसी का पति होता है।किसी का भाई होता है। किसी दफ़्तर का कर्मचारी होता है। यानी वह अनेक संबंधों के बंधन से बँधा होता है। यह बंधन ही हमारी परिभाषा बन जाती है।हम और आगे बढ़ें तो सम्पूर्ण विश्व, यहाँ तक कि सृष्टि से अपना संबंध जुड़ा हुआ पाते हैं। संपूर्ण सृष्टि के कल्याण में हम अपना सुख देखते हैं, और सम्पूर्ण सृष्टि के दुख में हम अपना दुख देखते हैं।

चूँकि हम समस्त सृष्टि से जुड़े होते हैं, तो हमारे अपने हित की अपेक्षा समस्त सृष्टि का हित हमारे विचार के केंद्र में होता है। वसुधैव कुटुंबकमकी भावना के पीछे यही दृष्टि कार्य करती है, जो अनंत काल से भारतीय चिंतन परंपरा का एक प्रमुख अंग रही है। यह दृष्टि समष्टिगत दृष्टि है।परिवार, समाज, संसार से होते हुए मनुष्य की यह यात्रा सृष्टि और परमेष्टि तक पहुँचती है, और यहीं मनुष्य का आनंद से साक्षात्कार होता है।

मित्रों,जिसने भी दीनदयाल जी को थोड़ा भी समझा होगा, वह यह जानता होगा की एकात्म मानववाद एक ऐसी अवधारणा है, जिसके केंद्र में व्यक्ति, व्यक्ति से जुड़ा हुआ एक घेरा परिवार, परिवार से जुड़ा हुआ एक घेरा-समाज, फिर राष्ट्र, विश्व और फिर अनंत ब्रम्हांड है।जब हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदीजी ने सबका साथसबका विकास का नारा दिया, तोउसका आधार भी हमारे मार्गदर्शक दीनदयालजी का एकात्म मानववाद ही था।

मित्रों,जब भी हम दीनदयालजी की बात करते हैं,तो लोग सबसे पहले जिस कहावत को याद करते हैं, वह है हर हाथ को काम,हर खेत को पानी। यह एक ऐसा काम है, जो लम्बे समय तक इस देश के आर्थिक नियोजन का कभी हिस्सा ही नहीं रहा।आजादी के बाद पहली बार अटलजी ने, देश के गांव, गरीब और किसान को अपनी नीतियों का केन्द्र बनाया था। आज मोदीजी उसी रास्ते पर और बड़े पैमाने पर काम कर रहे हैं।

दीनदयालजी का विचार था, कि हमारे सांस्कृतिक मूल्य, जो अपने राष्ट्र जीवन के लिए ही नहीं, सारे संसार के लिए अत्यंत उपयोगी हैं, हमें उनकी रक्षा करना चाहिए। आज पूरी दुनिया एक global village की तरह हो गई है। हर देश अपने Action से पूरी दुनिया पर असर डालता है।विश्व शांति, और सौहार्द के प्रति हमारी एक सांस्कृतिक प्रतिबद्धता रही है, जिस पर हम हमेशा कायम रहे हैं।

इसी तरह भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, और पारंपरिक ज्ञानको भी हमें संजोकर रखना चाहिए। योग और आयुर्वेद, जो भारत की पूरी दुनिया को देन है, उसका महत्व अब सबको समझ में आ रहा है।योग की प्रतिष्ठा सारे संसार में स्थापित हुई है। आज दुनिया के 190 देशों में हर साल अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस भी मनाया जाने लगा है।भारत की इस सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने, और साझा करने से विश्व का भी कल्याण होगा। यह दीनदयालजी का भी मानना था।

साथियों,पंडित जी ने राष्ट्ररक्षा के संदर्भ में भी बड़ी गहनता से विचार किया था। उनका मानना था, कि देश कोसैन्यदृष्टि से आत्मरक्षा में समर्थ होना चाहिए। जब 1964 में चीन ने पहला nuclear test किया तो, उस समय ही दीनदयालजी इस बात के पक्षधर थे कि भारत को nuclear test करना चाहिए।भारत में एक credible nuclear deterrent की बात अगर किसी ने की, तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने की। अटलजी ने 1998 में राजस्थान की वीरभूमि पर पांच परमाणु धमाके किए, तोउनके सामने लक्ष्य किसी देश पर Atom Bomb डालना नहीं था, बल्कि एक deterrentरखना था।उस deterrent के कारण ही, भारत की सेना में आज आत्मरक्षा का पूरा आत्मविश्वास है।आज 2022 में, जब भारत की सेना चीन के साथ engagement करती है, तो बराबर की हैसियत से करती है। यदि भारत की तरफ कोई भी ताकत टेढ़ी निगाह रखेगी, तो उसका माकूल जवाब देने की ताकत भारतीय सैनिकों में है।

साथियों, दीनदयालजी आर्थिक स्वावलम्बन के बड़े पक्षधर थे। आज देश आजादी के अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है, तो हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने देश के सामने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। दीनदयालजी इस लक्ष्य की सबसे बड़ी प्रेरणा हैं।भारत यदि विश्व में एक महाशक्ति बनना चाहता है, तो उसका आत्मनिर्भर होना पहली शर्त है।कम से कम अपनी रक्षा जरूरतों के लिए तो भारत को आत्मनिर्भरता का लक्ष्य जरूर हासिल करना होगा।हमने उस दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं।इस राह में निजी क्षेत्र की क्या भूमिका हो सकती है, इसे भी हमारी सरकार ने भली-भांति जान-समझ लिया था।

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई जी निजी क्षेत्र की ताकत को game-changer मानते थे। यही कारण था कि उन्होंने defence sector में भी private sector के participation का प्रावधान किया। एक तब का दिन था और एक आज का दिन। हम लगातार ऐसे-ऐसे reforms करते जा रहे हैं, जिससे हमारे private sector, defence sector में अपने आने के लिए प्रोत्साहित हों।

आप लोगों को यह जानकर खुशी होगी, कि हमने अपने budget का एक बड़ा हिस्सा, केवल और केवल Domestic Vendors से खरीददारी के लिए अलग कर दिया है।इस वर्ष, यानि 2022-2023 के लिए यह 68% यानि लगभग 85,000 करोड़ कर दिया गया हैI साथ ही सरकार ने Defence R&D budget का एक चौथाई हिस्सा industry led R&D को dedicate करने का निर्णय लिया है। इससे भारत में नई नई defence technologies के innovation की राह प्रशस्त हो रही है।

रक्षा मंत्रालय ने, 309 defence items की तीन positive indigenization listsजारी की हैं, जिनकी एक समयसीमा के बाद किसी भी सूरत में बाहर से खरीददारी नहीं होगी। वे सभी साजो-सामान भारत की धरती पर, भारतीयों के ही हाथों बनाए जाएंगे। इसी तरह उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में दो-दो defence corridors का निर्माण,दुनिया की best technologies को भारत में लाने, और उनके in-house development जैसे अनेक प्रयास हैं, जो defence sector में आत्मनिर्भरता लाने के लिए किए जा रहे हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम न केवल अपनी जरूरतों भर का सामान बनाएँ,बल्कि दूसरे देशों को भी defence items export करें। कुल मिलाकर मैं कहूँ,तो हम पंडित जी के सपनों को पूरा करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।

यद्यपि इन पांचों खंडों को पूरा पढ़ने का समय मैं अभी नही निकाल पाया, मगर आप सबसे मेरा यही आग्रह होगा, कि यदि भारत के वैचारिक धरातल को समझना है, तो ये पुस्तकें आपके लिए काफी सहायक सिद्ध होंगी। बजरंग लालजी ने बड़े परिश्रम से इन पुस्तकों को तैयार किया है।मैं उनके इस प्रयास के लिए जहां उन्हें बधाई देता हूं, वहीं उन्हें धन्यवाद भी देता हूं, कि उन्होंने दीनदयालजी के विचार दर्शन पर बड़ी प्रामाणिक पुस्तकों को तैयार किया है, जिनसे हम सब सीख सकते है। इस अवसर पर अधिक कुछ न कहते हुए,मैं पुस्तक की सफलता की कामना करता हूँ, और मैं अपना निवेदन समाप्त करता हूँ।

धन्यवाद,

जय हिंद!