राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह जी द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘आइडिया ऑफ गुड गवर्नेंस’ विषय पर दिया गया पूरा भाषण (28/01/14)

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डीन फेकल्टी ऑफ लॉ प्रो. अश्विनी बंसल जी, प्रो. मिसेस ऊषा टंडन और प्रिय श्री पंकज चौधरी। इस सभागार में उपस्थित सभी सम्मानित शिक्षणगण और मेरे सभी नौजवान मित्रों। इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि दूसरी बार इसी हॉल में मुझे लॉ फेकल्टी के बच्चों को संबोधित करने का अवसर प्राप्त हुआ है। इसके पहले भी मैं 2008 में यहां पर आ चुका हूं। पंकज चौधरी जिस समय मेरा इंट्रोडक्शन (परिचय) करा रहे थे, कुछ बातें समझ में आईं, कुछ बातें समझ में नहीं आईं। और मैं प्रोफेसर बंसल से पूछ रहा था कि ये मेरे बारे में बोल रहे हैं तो क्या बोल रहे हैं ? लेकिन कुछ ऐसे शब्दों को हमने सुना है, तो इस नतीजे पर पहुंचा कि इन नौजवान मित्रों के सामने वह हमारी कीमत बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे लगा कि पंकज चौधरी के ऊपर भी महंगाई का पूरा असर है। आजकल हर चीज की कीमत बढ़ रही है, शायद उसी रौ में पंकज चौधरी ने हमारी भी कीमत बढ़ा दी। लेकिन मेरे नौजवान मित्रों, मैं यह मानता हूं कि किसी व्यक्ति को ठीक तरीके से पेश करने के लिए अथवा उसका कद बढ़ाने के लिए बहुत सारे अलंकारों अथवा एडजेक्टिव्स (विशेषणों) की आवश्यकता नहीं होती है। मनुष्य की कद अगर अपने जीवन में बड़ा होता है तो अपनी कृतियों अर्थात डिड्स (कर्मों) के कारण बड़ा होता है, पद के कारण किसी मनुष्य का व्यक्तित्व बड़ा नहीं हो सकता है। इस यथार्थ को भी हम सभी को समझना चाहिए। आज जिस विषय पर यह लेक्चर यहां पर आयोजित किया गया है, बहुत महत्वपूर्ण विषय है। लेकिन ऐसा विषय है कि आधे घंटे, पैंतालिस मिनट के अंदर गुड गवर्नेंस का विचार नहीं रखा जा सकता है। और यह भी कोई दावा नहीं कर सकता है कि गुड गवर्नेंस के बारे में जो वह कह रहा है, वह परफेक्ट है, या इससे अधिक कुछ नहीं हो सकता है। लेकिन मैं यह मानता हूं कि गुड गवर्नेंस के विषय में हमारी यह धारणा है कि सबसे पहली आवश्यकता जो मुझे महसूस होती है कि जिन लोगों की हाथों में गवर्नेंस होती है, उनके प्रति डेमोक्रेटिक सेट-अप में जनता के मन में उनके प्रति एक क्रेडिबिलिटी होनी चाहिए, एक विश्वास होना चाहिए। स्वतंत्र भारत के इतिहास में मैंने ऐसा महसूस किया है कि पॉलिटिशियंस की वडर्स और डिड्स (कृति और कथन) दोनों में अंतर होने के कारण भारत की राजनीति और यहां के नेताओं पर जनता का विश्वास पहले की अपेक्षा काफी कम हुआ है। और यह क्राइसिस ऑफ क्रेडिबिलिटी (विश्वसनीयता का आभाव) दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। मैं गुड गवर्नेंस का दावा करने वाले किसी भी लीडर या पॉलिटिकल पार्टी से यह अपेक्षा करता हूं कि इस क्राइसिस ऑफ क्रेडिबिलिटी जो भारत में वडर्स और डिड्स में अंतर के कारण पैदा हुई है, इसे चैलेंज के रूप में स्वीकार करना चाहिए। जब तक यह वडर्स और डिड्स में अंतर रहेगा, लीडर के प्रति जनता का विश्वास कभी भी नहीं बन सकता है। भरोसा कभी नहीं हो सकता है। और स्वतंत्र भारत में यह क्राइसिस ऑफ क्रेडिबिलिटी काफी हद तक हमको देखने को मिली है, क्योंकि आप भी अगर स्वतंत्र भारत के इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो सहज रूप से इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि 15 अगस्त 1947 को हमने आजादी हासिल की और आजादी हासिल होने के बाद कई सरकारों को केंद्र में भी आपने देखा है और राज्य में भी देखा है। जब कभी भी चुनाव होता है, चुनाव के समय सभी राजनीतिक पार्टियां जनता के बीच जाती हैं, जनता से बड़े-बड़े वादे करते हैं और यह भी दावा करते हैं कि यदि हमारी गवर्नमेंट बनी तो हम गुड गवर्नेंस देंगे और जो-जो वादे आपसे कर रहे हैं, एक-एक वादों को निश्चित रूप से पूरा करेंगे। यह जनता को भरोसा दिलाती हैं। मैं समझता हूं कि स्वतंत्र भारत में राजनीतिक नेताओं के द्वारा जितने वादे किए गए, यदि आंशिक रूप से भी वे वादे पूरे कर दिए गए होते तो आज यह भारत विश्व का सबसे सुपर इकोनॉमिक पावर बन गया होता, इसे कोई रोक नहीं सकता। इसलिए मैं कहता हूं कि क्राइसिस ऑफ क्रेडिबिलिटी, यह बहुत बड़ा चैलेंज है। हर पॉलिटिकल पार्टी को, नेताओं को, इसे चैलेंज के रूप में स्वीकार करना चाहिए। इतना ही नहीं, सभी राजनीतिक पार्टियों को इस सच्चाई को भी समझना चाहिए कि अगर हम राजनैतिक क्षेत्र में काम रहे हैं तो हमारा उद्देश्य केवल सरकार बनाने के लिए नहीं होना चाहिए। राजनैतिक क्षेत्र में अगर काम कर रहे हैं तो जनता का समर्थन प्राप्त होगा तो सरकार बनाएंगे, लेकिन अगर हम राजनीति कर रहे हैं तो केवल सरकार बनाने के लिए नहीं, बल्कि देश और समाज को बनाने के लिए राजनीति कर रहे हैं। यह भाव जब तक मन में नहीं होगा, तब तक गुड गवर्नेंस का चाहे जितना भी बड़ा खांका या एक्शन प्लान पेश क्यों न कर दें, उसे हम साकार नहीं कर पाएंगे।

मुझे याद है, उत्तर प्रदेश में 1998 में मैं एजुकेशन मिनिस्टर था। वहां पर उस समय मास कॉपिंग होती थी। मैंने अपने सेक्रेटरी को बुलाकर कहा कि कैसी गवर्नमेंट, जिसके रहते हुए हमारे बच्चे मास कॉपिंग करें, नकल करें। क्या नकल के माध्यम से वे बच्चे योग्यता, प्रतिभा या क्षमता बढ़ा सकते हैं। तो जानते हैं हमारे बहुत सारे सीनियर कलिग्स ने मुझसे यह कहा कि सिंह साहब यह जोखिम मत उठाइए, करोड़ों बच्चे उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में पढ़ते हैं और जिस दिन आपने एंटी कॉपिंग एक्ट लागू कर दिया, उस दिन समझिए कि दो करोड़ की संख्या में पढ़ने वाले ये बच्चे, सब के सब भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ हो जाएंगे। और आगामी चुनाव में भारतीय जनता पार्टी किसी भी सूरत में सत्ता में नहीं आ सकती। यह तर्क मेरे सामने पेश किया गया। मैं इसे कैबिनेट में लेकर गया, इस पर डिबेट होती रही। हमारा प्रपोजल कैबिनेट में पास नहीं हो पाया। दूसरी बात लेकर गया, नहीं पास हो पाया। तीसरी बार जब मैं लेकर गया तो मुख्यमंत्री जी से स्वयं मिला और कहा कि बराबर कैबिनेट में इस पर डिबेट होती है, लेकिन मैं अगर शिक्षा मंत्री हूं तो मैं आपसे विनम्र अनुरोध कर रहा हूं कि यह प्रपोजल पास होना चाहिए अथवा नकल रोकने का कोई न कोई विकल्प हमारे मंत्रीमंडल के द्वारा हमें सुझाया जाना चाहिए। तब मुख्यमंत्री जी ने गुरुवार को होने वाली कैबिनेट मीटिंग में सीधे मेरा प्रपोजल उठाकर कैबिनेट के जितने सारे मंत्री थे, सबके सामने कहा कि हमारे शिक्षा मंत्री का आग्रह है कि इसे पास होना चाहिए और उस समय वह पास हुआ था। आप यह कल्पना कर सकते हैं कि उस समय हालात कैसे थे कि 75 प्रतिशत, 80 प्रतिशत रिजल्ट आते थे, लेकिन एंटी कॉपिंग ऑर्डिनेंस लागू करने के बाद केवल 14 प्रतिशत रिजल्ट उस समय आए थे। शिक्षा के क्षेत्र में जितना बड़ा खोखलापन था और इसके बाद गार्जियन ने इस बात पर ध्यान देना शुरू कर दिया कि हमारे बच्चे ठीक तरह से पढ़ाई करें, टीचर्स ने भी बच्चों पर ध्यान देना शुरू कर दिया था।

कभी-कभी गुड गवर्नेंस देने के लिए कुछ कड़े फैसले लेने पड़ते हैं। अब कोई कह सकता है कि अगर लोगों को अच्छी फीलिंग न हो गवर्नेंट के साथ तो ऐसी गवर्नेंट के संबंध में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह अच्छी गवर्नेंस देने का काम कर रही है। क्योंकि गवर्नेंस के बारे में मैं कह सकता हूं कि गवर्नेंस को केवल आंकड़ों के आधार पर ही नहीं मापा जा सकता है। कोई ऐसा खास पैरामीटर नहीं है जिसके आधार पर हम कह सकें कि इस पैरामीटर के आधार पर यह गवर्नेंस खरी उतरी, इसलिए यह गुड गवर्नेंस है, यह भी दावा नहीं किया जा सकता। यह एक प्रकार की फीलिंग है कि यह सरकार ठीक काम कर रही है कि नहीं कर रही है ? परफॉरमेंस कैसा है ? तो यह लोगों पर निर्भर करता है कि लोग कैसा सोचते हैं ? लेकिन गुड गवर्नेंस की अगर बात करें तो यह लोकतंत्र है। लोक का अर्थ होता है- जनता। जनता की कई समस्याएं हैं, अथवा जनता जो चाहती है उसके अनुरूप ही हमको कई कदम उठाने होते हैं। समस्याओं का यदि निराकरण होता है, स्वाभाविक है कि जनता यह कहती है कि जैसा सुशासन होना चाहिए गवर्नेंट के रहते हुए, वैसा सुशासन हमको देखने को मिल रहा है। लेकिन मैं अगर आपसे यह सवाल पूछूं कि 1947 के बाद जितनी भी सरकारें आईं, गुड गवर्नेंस के पैरामीटर्स पर कितनी सरकारें खरी उतरी हैं तो इसका सही मूल्यांकन मैं नहीं कर सकता हूं, लेकिन इसका सही मूल्यांकन इस देश की जनता कर सकती है। और गुड गवर्नेंस के बारे में एक सबसे पहली जरूरत जो मैं समझता हूं कि जनता के मन में एक सेंस ऑफ सिक्योरिटी (सुरक्षा का भाव) होना चाहिए। सुरक्षा का भाव लॉ एंड ऑर्डर के भाव में मैं नहीं कह रहा हूं, व्यक्तिगत सुरक्षा की बात नहीं कर रहा हूं। सेंस ऑफ सिक्योरिटी होनी चाहिए हेल्थ, एजुकेशन, इम्प्लॉयमेंट या कई ऐसे मामले में। कई ऐसे फेक्टर्स हैं जिसमें जनता को आश्वस्त रहना चाहिए कि यह सुरक्षा, यह सरकार अपने गवर्नेंस के माध्यम से हमें प्रदान करेगी। यह भरोसा व विश्वास होना चाहिए। लेकिन इस आजाद भारत में हुआ क्या है ? मैं समझता हूं कि कोई राजनैतिक पार्टी अगर चुनाव मैदान में उतरती है तो जनता से वादे करती है कि हम सभी को रोजगार दे देंगे, गरीबी दूर करेंगे, बेरोजगारी का संकट समाप्त हो जाएगा, सबको पर्याप्त सुरक्षा दी जाएगी। यानी जनता के मन में सेंस ऑफ सिक्योरिटी पैदा करने की पहली किसी की जिम्मेदारी होती है तो सरकार की होती है। और जब पहला दायित्व भी सरकारें नहीं निभा पाती हैं तो जनता के मन में आक्रोश होता है, असंतोष होता है। जनता विकल्प की तलाश में रहती है, आज इस पार्टी की सरकार बनती है तो कल दूसरी राजनैतिक पार्टी की सरकार बनती है। उससे भी जनता निराश होती है तो पहली वाली राजनीतिक पार्टी लाकर सरकार बना देती है। यह लोगों के मन के अंदर एक भाव पैदा हुआ है।

वैसे सामान्यतः एकेडमिक इंस्टीट्यूशन में जब मैं भाषण के लिए जाता हूं तो राजनैतिक विषयों पर नहीं बोलता हूं। लेकिन आप सभी लॉ के छात्र हैं और इस हॉल में प्रवेश करते ही जिस प्रकार के स्लोगंस आप सबने यहां पर दिए हैं, मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि हमारे दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स के अंदर पॉलिटिकल अवेयरनेस कुछ ज्यादा है। तो हमसे अगर कोई कहे कि यह सरकार फलां-फलां चीजें दे रही हैं तो हम कह सकते हैं कि हां, ये सरकार गुड गवर्नेंस दे रही है। सुशासन दे रही है। यह भी काफी हद तक सही है कि सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, ये सारी चीजें प्राथमिक जिम्मेदारी होती हैं। अब इधर हाल-फिलहाल जो भी सरकारों ने काम किया है, इधर, एक और मेजर फेक्टर है- प्राइस हाइक, महंगाई का। मैं आप सबको याद दिलाना चाहता हूं कि ऐसा नहीं है कि आजाद भारत में ही महंगाई बढ़ने का सिलसिला प्रारंभ हुआ है। महंगाई पहले भी बढ़ी है। खिलजी वंश का जब शासन था 800 वर्ष पहले तो उस समय भी महंगाई बढ़ी थी और उस समय प्राइस इस्टेबिलाइजेशन के लिए उस समय जो खिलजी वंश की हुकूमत थी, उनके द्वारा कदम उठाए गए थे। लेकिन गुड गवर्नेंस किसे कहा जाएगा, जो सभी प्रधानमंत्री हैं वो प्रिकॉशन (सावधानी) लें कि जिस महंगाई का असर देश में बढ़ रहा है, उसका खामियाजा जनता पर पड़ने वाला है तो तुरंत बढ़ती कीमतों को रोकने के लिए सरकार के द्वारा कुछ प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए। मैं, एक शख्सियत जो भारत के प्रधानमंत्री रहे हैं, उनका नाम लेना चाहूंगा- श्री अटल बिहारी वाजपेयी। उनके गवर्नेंट में मुझे भी काम करने का अवसर मिला है। बराबर वह इस बात की हिदायत अपने अधिकारियों को देते रहते थे कि किसी भी सूरत में महंगाई नहीं बढ़नी चाहिए। गरीब बेहाल हो जाएगा। अन्य मोर्चों पर थोड़ी-बहुत कमी रह जाए, लेकिन इस मोर्चे पर सरकार की तरफ से कोई कमी नहीं होनी चाहिए। क्या यह सच नहीं है कि स्वतंत्र भारत में यह पहला अवसर था कि छह वर्षों तक पूरी तरह से महंगाई को रोके रखने में अगर किसी सरकार ने कामयाबी हासिल की थी को श्री अटल बिहारी जी की सरकार ने हासिल की थी। कभी-कभी इकोनॉमी के बारे में चर्चा की जाती है कि जब जीडीपी की ग्रोथ रेट बढ़ती है तो स्वभाविक है कि महंगाई भी किसी न किसी सीमा तक बढ़ती है। कभी-कभी यह भी तर्क दिया जा रहा है कि महंगाई इसलिए भी बढ़ रही है कि क्योंकि वैश्विक आर्थिक मंदी से यह दुनिया गुजर रही है। तो स्वाभाविक रूप से हम अपने अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से खुद को जोड़े नहीं रख सकते हैं। तो इस वैश्विक आर्थिक मंदी से भारत भी प्रभावित होगा और यहां महंगाई बढ़ेगी। मैं अर्थशास्त्री तो नहीं हूं, लेकिन जहां तक जानता हूं कि मंदी आने पर महंगाई बढ़ती नहीं, बल्कि घटती है। देखिए क्राइसिस ऑफ क्रेडिबिलिटी का भाव कहां आता है, जब नेताओं के द्वारा जनता को गलत तर्क दिए जाते हैं। लेकिन याद दिलाना चाहता हूं कि 2001 में भी वैश्विक आर्थिक मंदी आई थी, जब श्री अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे। उस समय दुनिया का एक अकेला देश भारत था मेरे दोस्तों, जिन्होंने अपनी पॉलिसिज से भारत की अर्थव्यवस्था को प्रभावित नहीं होने दिया था। कोई यह पूछ सकता है कि उन्होंने ऐसा कौन सा करिश्मा कर दिया ? तो जवाब है कि स्वतंत्र भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में हेवी इन्वेस्टमेंट जितना अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने किया, उतना किसी भी शासनकाल में नहीं हुआ है। और जानते हैं इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में हेवी इन्वेस्टमेंट का यह परिणाम रहा है कि जो मैं आंकड़ा आपको देने जा रहा हूं, यह आंकड़ा मेरा नहीं है, बल्कि गवर्नेंट की ही एक एजेंसी नेशनल सेंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन के सर्वे का है। नेशनल सेंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन ने अपने सर्वे में यह कहा है कि 1998 से लेकर 2004 तक कितनी जॉब्स के अवसर इस देश में आए। कहा है- छह करोड़ 70 लाख। फिर यह भी कहा है कि सर्वे में कि 2004 से लेकर 2012 तक केवल- 27 लाख। क्यों ? किसे गुड गवर्नेंस कहेंगे ? इसका फैसला आप स्वयं करें, मुझे कुछ नहीं कहना है। और मेरे नौजवान मित्रों आप सबको यह जानकारी होगी कि देश की अर्थव्यवस्था को संभालकर रखना, पटरी से उतरने न पाए, यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है। फिसकल डेफिसिट, करंट अकाउंट डेफिसिट, ये उस समय नियंत्रण में थी। आज हालात तो ऐसे बन गए हैं कि फिसकल डेफिसिट, करंट अकाउंट डेफिसिट तो नियंत्रण के बाहर हो रहे हैं। भारत का वह भी अवसर था श्री अटल जी के शासनकाल में जब भारत करंट अकाउंट डेफिसिट कंट्री नहीं था, बल्कि भारत करंट अकाउंट सरप्लस कंट्री था। मुझे याद है कि सितंबर के महीने में मैं अमेरिका गया था। तो सिनेट के लोगों ने डिनर दिया था, तो जब रात्रि में जब सीनेट के लोगों के सामने मैंने चर्चा की कि इस समय हमारे यहां फिसकल डेफिसिट, करंट अकाउंट डेफिसिट एक बहुत बड़ा चैलेंज है। (जब अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे, उस समय भारत करंट अकाउंट डेफिसिट कंट्री नहीं बल्कि करंट अकाउंट सरप्लस कंट्री था) यह जानकर सीनेट के सदस्यों ने आश्चर्य व्यक्त किया था। यह होती है देश की अर्थव्यवस्था को संभालने की कला। और मैं मानता हूं कि एक अच्छे लीडरशिप के पास एक तो विजन, दूसरा पैशन और तीसरा मिशन चाहिए। यानी दृष्टि, जुनून और जज्बा चाहिए, गुड गवर्नेंस देने के लिए। और मैं आपको यह भी बताता हूं कि उस समय कैसे हालात पैदा हुए थे कि करगिल का युद्ध हुआ था, यह सच है कि हमारे सेना के जवानों ने अपने शौर्य, पराक्रम का परिचय देते हुए पाकिस्तान पर विजय प्राप्त की थी, फिर भी महंगाई नहीं बढ़ने दिया था। दुनिया की सारी डिवेलप्ड कंट्रीज भारत को धमकी देती रहीं कि खबरदार अगर आपने एटॉमिक टेस्ट किया तो खामियाजा भुगतना पड़ेगा और कह दिया कि दुनिया की डिवेलप्ड कंट्रीज से जो फाइनेंशियल एसिस्टेंस भारत को मिलता रहा है, वो अब नहीं मिलेगा। लेकिन राष्ट्रीय स्वाभिमान के धनी श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस बात की फिक्र नहीं कि और कहा कि ऐ मेरे वैज्ञानिकों, तुम जाओ, राजस्थान की वीरभूमि पर जितने एटॉमिक बम्ब्स का धमाका करना चाहो, उतना धमाका कर एटॉमिक टेस्ट का परीक्षण करो। पांच-पांच एटॉमिक टेस्ट का एक्सप्लोजन हो गया, एटॉमिक टेस्ट का काम पूरा हो गया। दुनिया के विकसित देशों ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन फिर भी मेरे मित्रों श्री अटल जी ने देश में महंगाई को नहीं बढ़ने दिया।

इतना ही नहीं, दुनिया का सबसे मजबूत कंट्री अमेरिका के राष्ट्रपति 2010 में भारत आए थे। उनका विचार श्री अटल जी के शासनकाल के परिपेक्ष्य में था। भारत में दोनों सदनों को संबोधित करते हुए बाराक ओबामा ने कहा था कि साहब, भारत की इकॉनोमी के बारे में मैं जानता हूं। इंडिया इन नॉट इमर्जिंग, बट इंडिया हैज इमर्ज्ड। यह विचार 2004 तक की केंद्र सरकार के चलते एक अच्छे शासनकाल का परिणाम था।

आज बहुत सारे गरीब इलाज के आभाव में दम तोड़ रहे हैं। कौन इसकी जिम्मेदारी लेगा। क्या सरकार बनने के पांच साल तक यह काम पूरा नहीं हो सकता है ? मैं बधाई देना चाहता हूं गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को, जिन्होंने गुजरात को यह सुनिश्चित कर दिया कि सबका हेल्थ इंश्योरेंस हो। और यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि अगर कोई गरीब हो तो यह उस राज्य सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह उसका प्रीमियम पूरा करती रहे। हमारी और भी राज्य सरकारें यह काम कर रही हैं। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री जब मैं मुख्यमंत्री था तो मैंने भी इसकी शुरुआत की थी।

आज शिक्षा के मसले पर सरकार द्वारा संचालित जो प्राइमरी स्कूल्स हैं उनमें बच्चों को किस तरह की शिक्षा दी जाती है, यह देखिए। क्या आपको नहीं लगता कि उसमें क्वालिटी ऑफ एजुकेशन का आभाव है ? आज यहां पर कई शिक्षण संस्थाएं चल रही हैं जिनका एक दूसरे से स्तर में काफी अंतर है।

रोजगार का जहां तक सवाल है, डोल्स तो दिए जाते हैं, चुनाव जीतने के लिए रोजगार भत्ता तो देने की घोषणा की जाती है, लेकिन धरातल पर काम नहीं होता। मगर मैं भारत के नौजवानों को जानता हूं कि भारत का नौजवान स्वाभिमानी है। वह भत्ता, डोल्स, बख्शीश नहीं चाहता, बल्कि वह स्वाभिमान के साथ जीना चाहता है।

योग्यता, क्षमता, प्रतिभा जिसकी जितनी हो, क्या उसे रोजगार का अवसर नहीं मिलना चाहिए। आज गांवों से शहरों की ओर पलायन हो रहा है। क्यों उन्हें गांव से शहर आना पड़ रहा है ? क्या सरकार ने इस पर सोचा है ? क्या गांवों में शिक्षा बेहतर नहीं दे सकते ? क्या वहां हेल्थ सिक्योरिटी नहीं दे सकते ? हम वहां पर भी रोजगार नहीं दे सकते ? सड़क, बिजली, पानी हो गांवों में तो क्यों कोई शहरों की ओर जाएंगे ? मैं याद दिलाता हूं कि महात्मा गांधी ग्राम स्वराज्य की बातें करते थे। आज भी भारत गांवों का देश है। गांव में जितनी भी बुनियादी सुविधाएं हैं, वो गांवों में दिलाना होगा। अगर भारत का विकास करना है तो ऐसा करना ही होगा।

मैन्युफैक्चिरंग सेक्टर्स की हालत मैं देख रहा हूं। इसमें जितने भी उद्योग हैं, सभी आएंगे। जॉब्स अगर बढ़ेंगे तो इस सेक्टर को बढ़ाना देने से ही वह लक्ष्य प्राप्त होगा। आज अगर जीडीपी में इसका 13 से 14 फीसदी तक का योगदान है तो क्या हम इसे और भी अधिक नहीं बढ़ा सकते ? मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर्स में गिरावट होने के कारण एक तरफ चीन पुवर क्वालिटी की चीजों को एक्सपोर्ट कर रहा है, भारतीयों के पास इस क्षेत्र के लिए वो दक्षता है कि हम कहीं अधिक खरे उतरेंगे। यही कारण है कि भारत में मैन्युफैक्चर्ड चीजों को दुनिया में महत्ता दी जाती है, लेकिन इस सेक्टर्स को जितना प्रमोट करना चाहिए, उतना नहीं किया गया है। आज हमारा इंपोर्ट बढ़ता जा रहा है, एक्सपोर्ट कम होता जा रहा है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर्स की हालत खराब होने के ये कारण हैं। परिणाम करंट अकाउंट डेफिसिट बढ़ते जा रहा है। करंट अकाउंट डेफिसिट जब बढ़ेगा और विदेशी कर्जा लेकर जब काम चलाएंगे तो डॉलर के मुकाबले रुपया गिरेगा ही। आज यही हो रहा है।

हालांकि, हमारे प्रधानमंत्री जी को कहना नहीं चाहिए क्योंकि वो एक इकोनोमिस्ट हैं। हमारे प्रधानमंत्री ने संसद में कहा था कि भाजपा के लोग यह हाउस चलने नहीं देते हैं, इस कारण विदेशी निवेश भारत में नहीं हो सकता है जिसके कारण भारत की आर्थिक स्थिति खराब है। आप बताइए मित्रों, क्या भारत में ह्यूमेन रिसोर्सेज की कमी है ? नेशनल रिसोर्सेज की कमी है ? क्यों यह कहा जाता है कि भारत विदेशी पूंजी के बिना खड़ा नहीं हो सकता ? तो मैं यह पूछना चाहता हूं कि हमारे डोमेस्टिक इन्वेस्टर भारत को छोड़कर दुनिया क्यों जा रहे हैं ? इसका कोई जवाब नहीं हैं। जनता की आंखों में धूल झोंककर थोड़े समय के लिए सरकार बनाई जा सकती है, देश नहीं।

भ्रष्टाचार का मुद्दा है। किसी भी विभाग चले जाइए, लोग कहते हैं कि जब तक दो-चार रुपए नहीं रखते, तब तक फाइल मूव करती ही नहीं है। यह हालात है। कितने लाखों-करोड़ों के भ्रष्टाचार हुए हैं, ये मैं नहीं सीएजी कह रहा है। क्या भ्रष्टाचार को रोकने के लिए हमें कदम नहीं उठाने चाहिए ? केवल लोकपाल के पास होने से भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से लगाम लग जाएगा, ऐसा नहीं है। भ्रष्टाचार की सीमा देखिए, फाइलें ही मंत्रालय से गायब हो रही हैं। लोकपाल के साथ कई ऐसे बिल हैं जो पेंडिंग हैं, लेकिन केवल कानूनों के माध्यम से भ्रष्टाचार को नहीं रोका जा सकता।

अब दूसरा बिंदु कि हमारे भारतवासियों के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता होनी चाहिए। नेताओं को भी सोर्स ऑफ इंसपेरेशन (प्रेरणास्रोत) के रूप में काम करना होगा। एजुकेशन सिस्टम, ज्यूडिशियरी सिस्टम, इकोनॉमिक सिस्टम में भी बदलाव लाना होगा। इन सारी विषयों पर विचार होना चाहिए, जो नहीं हो रही हैं। अगर भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर वश पाना है, देश के सिस्टम में चेंज लाना है तो सबसे जरूरी है मूल्यों के प्रति कमिटमेंट की। वो कैसे होगा तो व्यक्ति को झूठ नहीं बोलना चाहिए, आचरण ठीक होना चाहिए, ईमानदार होना चाहिए। यह सब जीवन-मूल्य होते हैं जिसके प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता होती है। यह आखिर कहां से होगी ? हम अपने भारतीय संस्कृति के विषय में कितना जानते हैं ? मैं समझता हूं कि अगर हम बच्चों में शुरू से इसके प्रति प्रतिबद्धता तो बढ़ाना चाहते हैं तो भारतीय संस्कृति के विषय में ज्ञान उन्हें शुरुआती स्तर से ही देना होगा। भारत दुनिया का ऐसा देश है कि जिसकी संस्कृति श्रेष्ठतम है। मैं फिजिक्स का छात्र रहा हूं। मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि बहुत सारे फंडामेंटल्स अगर आज हैं तो जो भारत के ग्रंथ में हैं। उसी में उनके मूल बीज हैं।

मेरे मित्रों भारत में अगर हम महान राजा की बात करें तो श्रीराम हैं जिन्होंने अपने मूल्यों के प्रति सबकुछ लुटा दिया। त्याग किया। उन्होंने पिता का वचन स्वीकार किया और 14 वर्षों का बनवास काटा। इसी तरह राजा हरिश्चंद्र भी थे।

दोस्तों, पाकिस्तान की सेना के जवान यहां आते हैं और हमारे सेना के जवान की हत्या करते हैं, एक सेना के जवान का शरीर कुचल डालते हैं, दूसरे सेना के जवान का सिर धड़ से अलग कर सिर अपने साथ ले जाते हैं। और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है ? सरकार की क्या जिम्मेदारी बनती है ? भारत के सेना के जवानों के शौर्य और पराक्रम पर मुझे संदेह नहीं है। बल्कि मैं तो यह कहता हूं कि एक बार खुले हाथ हमारे जवानों को छोड़ दिया जाए तो हमारे सेना के जवानों के शौर्य और पराक्रम को देख लीजिए। चीन कहता है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का नहीं चीन का हिस्सा है। जम्मू-कश्मीर के बारे में कहते हैं कि स्टेप्ल्ड वीजा जारी करेंगे, अरुणाचल प्रदेश के लोगों को वीजा की कोई जरूरत नहीं है। हम कुछ नहीं बोलते हैं ? पड़ोसी देशों के साथ हमारे रिश्ते बेहतर होने चाहिए, लेकिन इसके लिए कूटनीतिक कुशलता चाहिए। 2003 में जब श्री अटल जी चीन गए थे तो वहां से तोहफा लेकर आए थे, जो चीन सिक्किम पर दावा किया था कि यह मेरा है, उसी दिन से चीन इस बात को कहने लगा कि अब हम सिक्किम पर दावा नहीं करेंगे, यह होती है डिप्लोमेटिक स्किल।

मैं कहता हूं कि भारत में केवल सुपर इकोनॉमिक पावर ही नहीं, बल्कि स्पिरिचुअल विकास भी हो। यदि भारत को जगत-गुरु बनाना है तो आर्थिक शक्ति के साथ आध्यात्मिक शक्ति का भी विकास करना होगा। मेरे नौजवान मित्रों, मंदिर में जाकर पूजा करना, मंदिर में जाकर इबादत करना और गिरजाघर में जाकर सजदा करना, यह अध्यात्म नहीं है। यह धार्मिक क्रियाओं का एक हिस्सा हो सकता है। मनुष्य मन प्रधान प्राणि है। सहृदय से काम करना चाहिए। हर मनुष्य सुख चाहता है तो मैं एक बार बता दूं कि छोटे मन का कोई व्यक्ति सुख प्राप्त नहीं कर सकता। बड़े मन का व्यक्ति ही सुख प्राप्त करता है। हमारे अटल जी कहा करते थे कि छोटे मन से कोई बड़ा नहीं हो सकता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं हो सकता। तो इस मन का उन्मन होना, बड़ा होना, यही अध्यात्म है। बड़े मन का व्यक्ति केवल अपने परिवार, समाज नहीं बल्कि पूरी सृष्टि की फिक्र करता है। हमारे यहां के ऋषियों, मनीषियों ने वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देने का काम दुनिया को किया है। मान लीजिए थोड़े देर के लिए कि मन इज अ सर्किल। इसको मैथिमेटिकल इक्वेशन के रूप में अगर मुझे कहना होता तो मैं कह सकता हूं कि मन (वृत्त) का जो डायमीटर है, जैसे-जैसे बढ़ाते जाइए, उसी रेसियो में सुख की मात्रा बढ़ती चली जाती है। सरकमफेरेंस ऑफ मन इज डायरेक्टली प्रपोर्शनल टू द मैग्निच्यूड ऑफ सुख। यही अध्यात्म है। इसलिए भारत को आर्थिक शक्ति के साथ आध्यात्मिक शक्ति भी बनाने की जरूरत है, तभी भारत जगत-गुरु बन सकता है। मैं यहां मौजूद सारे डीन्स, टीचर्स व स्टूडेंट्स को धन्यवाद देना चाहता हूं जिन्होंने मुझे इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया। बहुत-बहुत धन्यवाद।

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