नमस्कार,
हिन्दी पत्रकारिता के शिखर पुरुष प्रभाष जोशी जी की स्मृति में आयोजित इस ‘प्रभाष प्रसंग’ व्याख्यानमाला में मुझे आपलोगों के बीच आकर सम्बोधन करना था। मगर कुछ अपरिहार्य कारणों के चलते मेरा आप लोगों के बीच पहुंचना संभव नहीं हो पाया है। इसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। इसलिए मैं अपनी बात को लिखित रूप में आप तक पहुंचा रहा हूँ। सबसे पहले मैं प्रभाष जी की स्मृति को प्रणाम करता हूँ। यह बड़ा सुखद संयोग है कि इन 15 वर्षों में मैं दूसरी बार आ रहा हूँ। प्रभाष जी की याद में आयोजन और ‘लोकतंत्र में संसदीय मर्यादा’ यह विषय। किसी ने सोचा नहीं होगा। पर प्रभाष जोशी- लोकतंत्र और संसदीय मर्यादा ये तीनों एक दूसरे से जुड़े शब्द हैं। तीनों का अन्योन्याश्रितता सम्बन्ध है। और आज के दौर में इन तीनों की सख्त जरूरत है।
जब आज के कार्यक्रम के लिए राय साहब और हेमंत जी मेरे पास आए थे। तो मैं बिना कुछ सोच विषय जाने हाँ कर दिया था। क्योंकि प्रभाष जी के प्रति मेरे मन में अगाध श्रद्धा है। प्रभाष जी का लेखन कैसा भी हो, लोग उनके बारे में कुछ भी कहें, पर उनके पास वैकल्पिक विचार और प्रतिपक्ष को सुनने की क्षमता हमेशा रही। वे आस्थावान सनातनी थे। देश और समाजिक मुद्दों पर तन कर और डट कर खड़े रहना, पत्रकारिता को सरोकारों से जोड़ना उनसे सीखा जा सकता है। परम्परा और संस्कृति के रास्ते पर चलते हुए पोंगापंथ और कट्टरता के खिलाफ वे खड्गहस्थ थे। हिन्दी पत्रकारिता में सरल और देशी भाषा के लिए उन्हें याद किया जाएगा। उनका मानना था कि सहज अभिव्यक्ति मातृभाषा में ही हो सकती है। वे भाषा की तरलता और सहजता को शास्त्रीयता से ऊँचा आंकते थे। वे आज होते तो 90 बरस के होते। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को अपने हाथ से गढ़ी पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी दी।
प्रभाष जी अनेक मामलों में भाजपा के मुखर विरोधी थे। पर वे दूसरे विचारों को सुनने का माद्दा रखते थे। उन्हें सम्मान देते थे। मेरे प्रति तो उनके मन में अपार स्नेह था। 2009 की बात होगी, मैं गाजियाबाद से चुनाव लड़ रहा था। वसुन्धरा में चुनाव कार्यालय खुला। मैंने उन्हें बुलाया। कई लोगों ने कहा कि वह नहीं आएंगे। पर वे हेमंत जी के साथ आए। मुझे विजयी भव का आशीर्वाद दिया। मेरे कहने का आशय यह है कि वैचारिक भिन्नता के बावजूद वे अपना सहज स्नेह और प्रेम छुपाते नहीं थे।
प्रभाष जी निडर और बेबाक पत्रकारिता के आदर्श हैं। पत्रकारिता लोकतंत्र की पहरेदार है। पहरेदार जितना निडर और जागरूक होगा लोकतंत्र उतना ही स्वस्थ और मजबूत होगा। पर पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारिता भी सवालों से घिर गयी है। उसके भी बुनियादी मूल्यों का अब पालन नहीं हो रहा है। समाचारों पर विचार हावी हैं। समाचारों को दृष्टिकोण में ढाल कर पाठक तक पहुँचाया जा रहा है। क्या यह लोकतंत्र के लिए स्वस्थ प्रवृत्ति है? आप सबको भी आत्मविश्लेषण करना चाहिए।
अब मैं आता हूँ आज के विषय पर। ‘लोकतंत्र में संसदीय मर्यादा’। पश्चिम से लोकतंत्र की अवधारणा से शताब्दियों पहले भारत में जनतंत्र को गणतंत्र की विद्या में बदलने का आविष्कार कर लिया गया था। महाभारत के शांति पर्व में भीष्म पितामह जिस गणराज्य को चलाने की सीख युधिष्ठिर को दे रहे हैं, वही ‘संसदीय मर्यादा’ की अपनी मौलिक अवधारणा है। भीष्म युधिष्ठिर को बता रहे हैं कि राजा के पास शक्ति हो, सेना हो, कोष हो, विजय की इच्छा हो तब भी अगर गणतंत्र विधान और मर्यादा नहीं है तो देश विभाजित हो जाता है। और गणतंत्र की मर्यादा क्या है? सुनने की क्षमता, कहने की मर्यादा और संख्या के बावजूद सहमति का फैसला। यानी लोकतंत्र का शुद्धतम स्वरूप गणतंत्र में ही निहित है। भारतरत्न प्रो. पी.वी. काणे ने एक बहुत मूल्यवान बात कही है “भारतीय ऋषियों ने समाज के सभी वर्गों के आचरण और सूक्ष्मतम व्यवस्थाओं पर इतना गहन चिंतन किया की व्यवस्थाएँ बनती गयी और उसमें सुधार होते गए।” लोकतंत्र अपनी मूल्य अवधारणा में अनपढ़ और आदिम था। वह बहुसंख्यक लोगों का हुजूम है। इसलिए गणतंत्र ही उसका सबसे उदात्त स्वरूप है। क्योंकि गणतंत्र के केंद्र में संविधान है। जो किसी भी समाज की सहिष्णुता, न्याय और नियमबद्ध आचरण का शास्त्र है।
यदि कोई आपसे कहे कि संविधान पश्चिम से आया। तो उससे आप कहिएगा, पुराण युग से पहले तक ऋषि समाज चलाने की व्यवस्थाएँ ही लिखता था। इसलिए अगर कोई वैदिक संदर्भों, धर्मशास्त्रों, संहिताओं, महाभारत, रामायण बौद्ध साहित्य के महानिब्बान और अवदान सुत्त, जैन साहित्य और कौटिल्य के अर्थशास्त्र के उन सभी नियम, निर्देशों को एक जगह इकट्ठा करें, तो राजा, समाज, अर्थव्यवस्था और न्याय व्यवस्था से जुड़े आपको आधुनिक संविधानों की पूर्व-पीठिका का मिल जायेगी।
मुद्दे दो हैं- एक लोकतंत्र और दूसरा संसदीय मर्यादा। ये दोनों परस्पर गर्भ-नाल जैसे जुड़े हुए हैं। इनके आपसी रिश्तों से संसदीय लोकतंत्र परिभाषित होता है।
आजादी का अमृत महोत्सव हमने अभी मनाया। उससे एक बात दुनिया ने जाना कि भारत लोकतंत्र की जननी है। पहले हमें यह बताया जाता था और हम बिना विचारे मान लेते थे कि भारत को लोकतंत्र तो अंग्रेजों की देन है। आज भी ऐसे महान लोग मिल जाएंगे जो इस धारणा से अभी स्वयं को अलग नहीं कर पाएं हैं। एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब ऐसे लोग अपनी भूल स्वीकार करेंगे।
अमृत महोत्सव के ही दौरान संसद के नये भवन के शिलान्यास के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 10 दिसंबर 2020 को अपने भाषण में कहा कि भारत का लोकतंत्र ‘मेगना कार्टा’ से भी बहुत प्राचीन है। हम जानते हैं कि तेरहवीं सदी में एक समझौता हुआ था। उसे रॉयल चार्टर ऑफ राइट्स इन इंग्लैंड के नाम से जाना जाता है। उसका दूसरा नाम है मेगना कार्टा।
भारत अत्यंत प्राचीन काल से लोकतंत्र है। उसका इतिहास हजारों सालों में फैला हुआ है। भारत की लोकतांत्रिक परंपरा में ऋषियों, मुनियों, राजनीतिक दार्शिनिकों, आचार्यों और शासकों का बड़ा योगदान है। कुछ को हम जानते हैं कुछ को हम नहीं जानते हैं।
संसार में प्राचीन काल से सुचारू शासन के लिए विविध प्रकार के शासन तंत्र बनते और बिगड़ते रहे हैं। राजतंत्र से शुरु ये सिलसिला सामंत तंत्र, अधिनायक तंत्र से होता हुआ लोकतंत्र तक आता है। इनमें से सामंतवादी और अधिनायकवादी तंत्र बहुत कुछ इतिहास की बात बन चुके हैं। आज दुनिया में दो तरह की शासन प्रणाली चल रही है। एक राजतंत्र और दूसरा लोकतंत्र।
‘डिओडरस ऑफ सिसिली’ ग्रीक इतिहासकारों का वेद व्यास है। उसने ‘विविलोये हिस्टोरिका’ लिखी है। इसमें ग्रीक इतिहास के मिथकीय युग से लेकर 60 ईसा पूर्व तक का ब्यौरा है। यह पहली ‘यूनिवर्सल हिस्ट्री’ है जिसमें पेराक्लीज वाले गणतंत्र का युग भी है। और अलेक्जेंडर का विश्व विजय अभियान भी। डिओडरस का जन्म सिकंदर के ढाई सौ साल बाद हुआ था। तब तक ग्रीक इतिहासकार यह मानते थे कि गणराज्य उनके इतिहास की धरोहर है। पर डिओडरस ने बताया कि ईसापूर्व 326 में जब अलेक्जेंडर भारत आया तो उसे यहाँ फलते-फूलते गणराज्य मिले। ग्रीक लोगों को अचरज हुआ। तब तक विश्व को भारतीय गणतंत्र की अपूर्व परम्परा का मान नहीं था। महाभारत के शांति पर्व में भीष्म जिस गणराज्य को चलाने की सीख युधिष्ठिर को दे रहे थे। वह उनकी मौलिक धारण नहीं थी। उससे पहले वैदिक काल में ऐसी व्यवस्था मौजूद थी। गणतंत्र तो ‘ऋग्वैदिक काल’ से था।
ऋग्वैदिक काल में राजा निरंकुश नहीं था। उसे तीन जन प्रतिनिधिक संस्थाओं के साथ काम करना होता था। इसमें एक थी ‘विद्थ’। यह पुरोहितों की संस्था थी। धर्म के नियम तय करती थी। दूसरी थी ‘सभा’। यह निचले स्तर की राजनीतिक संस्था थी। तीसरी ‘समिति’। यह राजा की सलाहकार परिषद थी। महाभारत काल में इस गणतंत्र का रूप और निखरा। उसमें ‘राजकर्ता’ नाम की एक संस्था और जुड़ गयी। इसमें प्रोफेशनल होते थे। बौद्ध युग में लिच्छवी और वैशाली तक आते-आते यह व्यवस्था और सुगठित हो गयी। राजा तो थे पर शक्ति पर समाज का नियंत्रण था।
उन्नीसवीं सदी के अंत तक ज्यादातर देशों में राजतंत्र का प्रचलन था। उनमें से अनेक राज्य यूरोपीय उपनिवेशवादी देशों के प्रभुत्व में आ चुके थे। इस्लामी जगत में राजा या सुल्तान सर्वशक्तिमान माना जाता था और वह कुरान में दिये गए तंत्र के अनुसार राज्य चलाता था। ऐसे सारे राज्य ‘थियोक्रेटिक’ या मजहबी राज्य कहे जाते थे। यह आज भी हैं। ईसाई देशों की भी लगभग यही स्थिति थी। वहां भी मजहबी राज्य पद्धति का प्रचलन था। परन्तु सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में योरोप में पुनर्जागरण और सुधार आंदोलनों ने जोर पकड़ा इस कारण इसके बाद अनेक ईसाई राज्यों ने मजहब के आधार पर अपने नागरिकों में भेद-भाव की नीति छोड़कर सब नागरिकों के समान अधिकार, सबके लिए समान कानून और कानून के सामने सभी नागरिकों की बराबरी के आधार पर अपने राज्यों को ‘सेकुलर’ घोषित करना शुरू कर दिया।
इस प्रकार राजशाही राज्यों के साथ-साथ यूरोप की कुछ देशों खास तौर पर ब्रिटेन में लोकतांत्रिक पद्धति का विकास होने लगा। जो ब्रिटिश मॉडल है उसे संसदीय लोकतंत्र का नाम मिला। लेकिन संसदीय लोकतंत्र के आज अनेक रूप हैं।
पर ब्रिटेन का संसदीय लोकतंत्र नया है। यूरोप के कई देषों में यह प्रणाली पहले से प्रचलित थी। जैसे ग्रीस। जिसे यूनान भी कहते हैं। उसकी बात हम कर चुके हैं।
ब्रिटिश शासन के दौरान कुछ यूरोपीय विद्वानों ने भारत के इतिहास और इसमें प्रचलित शासन पद्धतियों का भी अध्ययन किया। इस काम के लिए उन लोगों ने भारत में सिकंदर के साथ आये यूनानी विद्वानों और चंद्रगुप्त के मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में यूनानी राजदूत मैगस्थनीज द्वारा लिखे गये अनुभवों और डायरियों को भी पढ़ा। इस अध्ययन के आधार पर उन्हें पहली बार पता लगा कि यूनानी गणराज्यों से बहुत पहले भारत में लोकतांन्त्रिक गणराज्य अधिक विकसित और अधिक मानवीय था।
ज्ञान और कला की अन्य विधाओं की तरह भारत में शासन पद्धति, शासननीति और लोकतंत्र की भी अति प्राचीन परम्परा है। इसका मूल स्रोत वेद ही हैं। वेद शब्द का शाब्दिक अर्थ ज्ञान है और वेद ज्ञान का शास्त्र है। इनमें ज्ञान विज्ञान के प्रत्येक अंग और विधा के संबंध में बहुत कुछ लिखा हुआ है, जिसे आज के वैज्ञानिकों के लिए यह खोज का विषय बना हुआ है।
यूनानी आक्रमण के बाद जब भारत में शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ, तब बहुत से भारतीय गणराज्य भी साम्राज्य के शिकार हो गये और उनका विशिष्ट लोकतांन्त्रिक स्वरूप समाप्त हो गया। परन्तु इन गणराज्यों के खत्म होने के बाद भी हिन्दुस्थान के ज्यादातर गावों में लोकतांत्रिक परम्परा चलती रही। ग्रामों की पंचायतें ग्राम का सारा कामकाज चलाती थीं।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में दिल्ली के आस पास तथा आगरा और अवध क्षेत्रों की ग्राम पंचायतों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। ये पंचायतें वेदकालीन भारत से ही चली आ रही हैं। हमें अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में राज्य की समान नीति के बारे में एक प्रार्थना मिलती है-
समानो मन्त्रः समितिः समानो
समानं मन्त्रः सह चित्तमेशाम्।
समानं मन्त्राभि मंत्रेय वः
समानेन वो हविशा जुहोनि।।
अर्थ यह है कि लोगों का लक्ष्य और मन समान हो। 73वें संविधान संशोधन के जरिए हमने पंचायती राज प्रणाली पुनः अपना ली है। यह संशोधन 1992 में किया गया था। अब भारत में फिर से पंचायतें फल-फूल रही हैं।
भारत ने अपने संविधान में प्रतिनिधिक संसदीय शासन प्रणाली अपनाई है। इस तरह हम एक संसदीय लोकतंत्र हैं। लोकतंत्र में सबसे अधिक महत्व लोगों का है। ऐसे लोकतंत्र में यह हमने माना है कि सामान्य जन में अपने भले बुरे की पहचान है। लोग अपने मालिक हैं। वे अपने विवेक पर प्रतिनिधि चुनते हैं। इस तरह संसदीय लोकतंत्र को सामान्य नागरिक एक स्वरूप देता है।
संविधान ने संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की है। इसमें सरकार लोकसभा में जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी है। संविधान राज्य के नागरिकों के लिए मर्यादाएं तक करता है। नागरिक में नेतृत्व भी शामिल है। और व्यवस्था भी। और उन मर्यादाओं की सुमेरू संसद है।
पश्चिम के बहुत सारे देशों में बालिग मताधिकार सबको एक साथ नहीं मिला। लेकिन भारत ने यह प्रयोग पहले दिन से ही शुरू कर दिया। संविधान ने हमें बालिग मताधिकार दिया है। इस पर शुरू में बहुत माने जाने विद्वानों को अंदेशा था कि यह प्रयोग विफल हो जाएगा। बाद में वे गलत साबित हुए। भारत के लोगों ने अपने मताधिकार से बताया कि लोकतंत्र हमारी रगो में है। खून में है।
संविधान में मर्यादाओं की संहिता है। जिन पर व्यवस्था को चलना होता है। संविधान में राज्य व्यवस्था के मूल सिद्धांत और लक्ष्य का स्पष्ट वर्णन है। जिसे हम उद्देषिका (प्रीएंबल), मौलिक अधिकार, नीति निदेशक तत्व और मूल कर्तव्यों में पाते हैं। ये सभी संविधान के भाग हैं और उसकी आत्मा है।
मुझे याद आ रहा है, आपातकाल। यह 49 साल पहले की बात है। उस आपातकाल में जरूर लोकतंत्र समाप्त हो गया था। तानाशाही कायम हो गई थी। लेकिन लोगों ने अपने विवेक से 1977 में उसे पलट दिया। याद करना चाहिए कि चुनाव तब जो हुए थे वे आपातकाल के दौरान कराए गए थे। यह सोचकर कराए गए थे कि जनता उस पर मुहर लगा देगी। लेकिन जनादेश लोकतंत्र के लिए आया। हम संसदीय लोकतंत्र के इस व्यवधान को अपवाद मान सकते हैं। उसके पहले और उसके बाद संसदीय लोकतंत्र की यात्रा भारत में बहुत सफलतापूर्वक चल रही है।
संसदीय लोकतंत्र की दो प्रमुख विषेशताएं हैं। एक स्वतंत्र चर्चा और दूसरा बहुमत से निर्णय।
संसद सिर्फ कानून बनाने मात्र के लिए नहीं है। वह संसदीय लोकतंत्र की ऐसी स्थली है जिससे बड़ी उम्मीदें की जाती हैं। उसका ऊंचा स्थान है। संसद गणतंत्र में संवाद का महातीर्थ है। दूसरे अपेक्षा होती है कि वह संवाद की ऐसा परम्पराएँ विकसित करेगा। जिस पर लोग विश्वास करें। और कुछ सौ लोगों को यह शक्ति दें कि वे करोड़ों लोगों को चलाने के नियम बना सकें। इसलिए संसद की मर्यादा अनूठी है।
हर चुनाव के बाद राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हैं। संसद की परिभाषा में राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा सम्मिलित है। राष्ट्रपति ही संसद के सदनों की बैठक बुलाते हैं। सदन एक नियम, परंपरा और मर्यादा से चलता है। इन तीनों को संसदीय मर्यादा के गोल घेरे में रखकर देखा जा सकता है।
अगर पहली लोकसभा से इस 18वीं लोकसभा के एक अधिवेशन तक का हम विहंगावलोकन करें तो जहां कुछ रोचक, प्रेरक प्रसंग उपस्थित होते हैं वहीं कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं जो प्रश्न चिन्ह बनकर हमारे सामने प्रकट होते हैं।
रोचक प्रसंग की बात करूं तो उसका इतिहास अस्थायी लोकसभा से प्रारंभ होता है। वह 1950 से 1952 का समय है। जब संविधान सभा का अंतरकालीन (प्रोविजनल) लोकसभा में रूपांतरण हो गया।
उस अंतरकालीन (प्रोविजनल) लोकसभा में संविधान का पहला संशोधन हुआ। उस पहले संशोधन पर जो लोकसभा में बहस हुई वह संसदीय मर्यादा का एक बढ़िया और अनुकरण करने योग्य उदाहरण है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पार्टी और संसद में अनेक अच्छी परंपराएं शुरू की। विपक्ष के विचारों का आदर और स्वस्थ बहस को वे बढ़ावा देते थे। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी संसद की गरिमा को बढ़ाते थे। हाजिर जवाब नेता थे। इसके बहुत सारे प्रमाण लोकसभा की कार्यवाही में मिलते हैं। उनमें पंडित नेहरू को भी अपने तर्कों से निरूत्तर करने की बौद्धिक क्षमता थी।
जिन लोकसभा सदस्यों ने संसदीय मर्यादा को ऊंचा उठाया, उनके नाम हमें जानना चाहिए। जैसे प्रोफेसर हीरेन मुखर्जी, आचार्य जे.बी. कृपलानी, अटल बिहारी वाजपेयी, प्रकाश वीर शास्त्री, डॉ. राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, लालकृष्ण आडवाणी, इंद्रजीत गुप्त, चंद्रशेखर आदि। यहां दो उदाहरण मुझे याद आ रहे हैं। एक बहस में वाजपेयी जी बोल रहे थे और कम्युनिस्ट सदस्य जब शोर मचाने लगे तो उन्होंने अध्यक्ष से कहा कि ‘शाखा मृग’ उपद्रव कर रहे हैं। यह बात कम्युनिस्टों को तब समझ में आई जब प्रकाश वीर शास्त्री ने उन्हें शाखा मृग का अर्थ बताया। वह बंदर होता है। इसमें मजाक भी है लेकिन ढंग नया है और संसदीय मर्यादा में है।
जहां से लोकतंत्र चलता है वह संसद है। संसद की छवि उसके सांसदों से बनती है और बिगड़ती भी है। इतना भर कहने से बात पूरी नहीं होती। सांसदों का संसद में व्यवहार जन समस्याओं के प्रति उनका रवैया, उनकी जीवनशैली और श्रेष्ठ सांसदों की परंपराओं पर चलने के बारे में उनका कार्य व्यवहार आदि से संसदीय मर्यादा का एक गोल घेरा बनता है। संसद की कार्यवाही के सीधे प्रसारण ने अब हर किसी को यह देखने और जांचने का अवसर उपलब्ध करा दिया है कि उसके प्रतिनिधि अपने सदन में क्या कर रहे हैं।
इस प्रकार संसद लोकतंत्र का विद्यापीठ है। संसदीय मर्यादा उसका परिवेश है। परिवेश अगर सकारात्मक है तो उससे एक सुंगध फैलेगी। संसद सत्य-असत्य का कुरुक्षेत्र नहीं है। इसलिए वहां कोई भीष्म अपनी मरण शैय्या पर नहीं है, जिनसे पांडव उनके पास जाकर संसदीय मर्यादा का मर्म जाने। इसे तो कोई महाभारत में पढ़ सकता है और अपने लिए मर्यादा निर्धारित कर सकता है।
मेरी नजर में अगर हम गणराज्यों की परम्परा को देखें तो संसद को जिस सबसे बड़ी मर्यादा से बांधा गया है। वह है ‘सुनने की क्षमता’। सुनना और समझते हुए सुनना पूर्ण मानवीय क्रिया है। असहमत होते हुए भी दूसरे पक्ष को शांति से सुनना, विरोध को धैर्य से स्वीकारना। प्रतिपक्ष की महत्ता को याद रखना और आलोचना को व्यवस्थित ढंग से आयंत्रित करना। ये प्रमुख मर्यादायें हैं। अगर गणतंत्र को चलना है तो उसे चलाने वालों को सुनने का आदर्श स्थापित करना होगा। इसलिए कौन, कब, कैसे बोलेगा? प्रश्न प्रहर होंगे इसके लिए विस्तृत नियम है। संसद में संख्याबल किसी का हो प्रतिपक्ष को अपनी बात कहनी होगी और सत्ता पक्ष को सुनना होगा। मैं यहाँ बार-बार प्रतिपक्ष कह रहा हूँ। आज यह विपक्ष हो गया है।
दूसरी मर्यादा है। ‘कहने की मर्यादा’। जब सुनने की मर्यादा है तो कहने वाला कुछ भी कैसे कह सकता है? पुरानी ग्रीक रोमन सीनेट में अभूतपूर्व बहसें होती थी। भारतीय बैठकों में भी लंबी सामूहिक बहसें, तर्क, शास्त्रार्थ होते थे। संसद में कहने की मर्यादा वहीं से मिली है। मैं अक्सर संसद की नियमावली पढ़कर चकित होता हूँ। यह कब, कैसे, किसके दिमाग में आया होगा कि जो मामला अदालत में है उस पर बात नहीं होगी। यानी संसद सर्वशक्तिमान है पर उसे न्याय की व्यवस्था को प्रभावित करने वाले संवाद नहीं करने चाहिए।
मैं समझता हूँ कि तीसरी बड़ी संसदीय मर्यादा है ‘सहमति’। तमाम असहमतियों के बाद निर्णय की सहमति। संख्या बल निर्णायक है। पर इतिहास उन सभी विरोधों को दर्ज करता है जो समय की कसौटी पर कसे जाएंगे। संसद के निर्णय गलत हो सकते हैं। कानून कमजोर पाए जा सकते हैं। पर अगर संसद सभी मर्यादाओं का पालन करते हुए कोई निर्णय करती है तो जनता सही गलत निर्णयों के योगक्षेम को सहने को तैयार रहती है। क्योंकि उसे पता है संसद में जो गए हैं वह उसका ही चुनाव है।
मेरी नजर में संसद राज्य व्यवस्था के सुचारु संचालन की पाठशाला है। उसे विश्वविद्यालय भी कह सकते हैं। विद्यापीठ भी नाम दे सकते हैं। जहां जन जीवन की जरूरतों को बड़े दायरे में देखने समझने और हल करने का सामूहिक प्रयास सतत चलते रहना चाहिए।
हमारी संसद का निरंतर विकास हुआ है। लेकिन संसदीय मर्यादाओं की कसौटी पर अनेक प्रश्न हैं। जो यक्ष प्रश्न बनते जा रहे हैं। उपलब्धि यह है कि संसद में प्रतिनिधित्व का विस्तार हुआ है। हर वर्ग, समुदाय, जाति, पेशे, पंथ, अमीर-गरीब सबका प्रतिनिधित्व बढ़ा है। एक अर्थ में आज संसद डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की उस आशंका का समाधान देती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमें राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना से ही संतोष नहीं करना चाहिए और सामाजिक लोकतंत्र के लिए प्रयास करते रहना चाहिए।
यह भी सही है कि संसद में पढ़े-लिखे सदस्य ज्यादा आए हैं। लेकिन इसके विपरीत आचरण में गिरावट के उदाहरण तो शर्मनाक हैं। इससे क्या नतीजा निकलता है। यही न कि वे सदस्य आदर्शवाद से भटक गए हैं। जब संसद के किसी सदन के सदस्य के लिए लिखित मर्यादा संहिता नहीं थी, तब वे अपने बड़े नेताओं की देखादेखी अपना आचरण ठीक रखते थे। अब हाल यह है कि हर सदन के लिए आचार संहिता बनी हुई है। पूछा जा सकता है कि उसका पालन कहीं हो भी रहा है? लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष शिवराज पाटिल का ध्यान जब इस ओर गया तो उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की अध्यक्षता में एक आचार संहिता समिति बनाई। चंद्रशेखर ने एक आचार संहिता तैयार करवाई। वह हर लोकसभा में बढ़ती जाती है। उसमें कुछ पन्ने जुड़ जाते हैं। उसी अनुपात में सदस्यों के आचरण में गिरावट भी देखी जा सकती है। जिस लोकसभा ने अपने एक सदस्य एच.जी. मुदगल को आज के मुकाबले में बहुत मामूली गलती पर निकाल दिया था। उसे माफ नहीं किया। यह सुनिश्चित किया कि उनका निष्कासन पहले हो और वे अपनी ओर से पहले ही इस्तीफा न दे सके। वह अंतर्कालीन लोकसभा थी। पहली लोकसभा तो बाद में बनी।
लोकसभा ने 17 सीढ़ियां पार कर ली है। अब वह अठारहवें सोपान पर है। इस लोकसभा से क्या अपेक्षाएं हैं। अभी जो पहला सत्र हुआ है उससे चिंता बढ़ी है या कम हुई है। यह सवाल है!
संसद के कामकाज की कुछ खास कसौटियां हैं। सबसे पहले प्रश्न काल की बात करते हैं। हम जानते हैं कि यह एक घंटे का समय ऐसा होता है जब सत्ता और विपक्ष का भेद मिट जाता है। सरकार होती है और दोनों तरफ जनप्रतिनिधि होते हैं। वे प्रश्न पूछते हैं और मंत्री उत्तर देते हैं। एक समय था जब विपक्ष की संख्या थोड़ी होती थी, लेकिन उसके सदस्य प्रश्नकाल का सही-सटीक उपयोग कर सरकार को कई बार उल्टा टांग देते थे। मारूति घोटाला प्रश्नकाल से ही निकला है। यह ऐसी अनेक कहानियां आपको बता सकता हूं।
लेकिन जिस प्रश्नकाल को बनाया ही इसलिए गया था कि जनप्रतिनिधि सरकार को समप्रभु जनता के प्रति जवाबदेह बना सके, वह प्रश्नकाल आज कल चलता कहां है! लोक के मुद्दे संसद में उठ नहीं पाते। यह चिन्ता का विषय है।
कवि और गांधीवादी विचारक भवानी प्रसाद मिश्र ने अपनी एक कविता में उस समय के शासकों को याद दिलाया कि रावी के तट पर आपने जो कसमें खाई उसे संसद में भुला दिया। मैं अक्सर इस बात से हैरान होता हूं कि बहुत पहले हमने 1 सितंबर 1997 को लंबी चौड़ी शपथ ली थी। जिसमें और बातों के अलावा प्रश्नकाल को निर्विध्न बनाए रखना भी शामिल था। संसदीय मर्यादा उसी से शुरू होती है। वह शपथ आजादी की स्वर्ण जयंती पर आयोजित संसद के विशेष सत्र में लोकसभा में ली गई थी। अब हम अमृत महोत्सव भी मना चुके हैं।
संसद संवाद का मंच है। इसके लिए संवाद का वातावरण बनना चाहिए। संसद चलेगी तो संवाद होगा। हम संवाद से भागते नहीं पर कुछ लोग हैं जो संवाद की जगह ‘हुंड़दंगजीवी’ है। संसदीय कार्यप्रणाली को सुधारने के लिए बने मंचों से यह मांग होती रही है कि संसद की बैठक कम से कम एक सौ दस दिन होनी चाहिए।
संसदीय मर्यादा के टूटने से बार-बार यह संदेह पैदा होता है कि क्या हमारी राजनीतिक संस्कृति में कोई बड़ा दोषी आ गया है। यह संदेह नया नहीं है। बहुत पुराना है। राजनीतिक संस्कृति को साफ सुथरा बनाने के प्रयास अनेक स्तरों पर होते रहे हैं और भविष्य में भी होंगे। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से ही लोकतंत्र की जड़ें गहरी होती जाएंगी। एक नया सामाजिक सांस्कृतिक आधार हमारे लोकतंत्र को प्राप्त होगा। इसकी हमें आशा करनी चाहिए। इसके लिए प्रयास भी करना चाहिए। इस प्रयास में हमें यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि राजनीति में सिर्फ सत्ता की राजनीति नहीं आती है। राजनीति का एक व्यापक अर्थ है। उसमें सत्ता-विपक्ष और समाज के परस्पर संबंध निर्धारित होते हैं। इस तरह परस्परता का दूसरा नाम राजनीति है।
हमारे लोकतंत्र का एक लक्ष्य है। उसे मैं समता लोक कहूंगा। व्यवहार और विचार में समता। लोकतांत्रिक जीवन दृश्टि जैसे-जैसे विकसित होगी, वैसे-वैसे लक्ष्य की दिशा में प्रगति संभव है।
अब तक यह मान्यता रही है कि संसद में ऐसा कोई विवाद नहीं खड़ा किया जाएगा जिससे देश का अहित होता हो। विशेषकर विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित विषयों पर। ऐसा पहली बार हो रहा है कि देश की सुरक्षा से संबंधित अनर्गल बातें कही जा रही है। सफेद झूठ बोला जा रहा है। लद्दाख को लेकर ऐसी टिप्पणियां की गई जिससे हमारी सेना का मनोबल गिरे। अग्निवीर पर बोला गया झूठ संसदीय मर्यादा को शर्मसार करता है।
अग्निवीर के बारे में गंभीर बहस हो, मैं उसका स्वागत करूंगा। लेकिन बिना जाने-समझे प्रधानमंत्री ही नहीं सेना को भी कठघरे में खड़ा करना बहुत अनुचित है। ऐसा नहीं लगना चाहिए कि हमारे कुछ विपक्षी नेता विदेशी शक्तियों के हाथ में खेल रहे हैं।
ऐसा पहली बार हो रहा है कि विपक्ष के नेता ने ऐसी तथ्यहीन और अशोभनीय बातें कही कि उनके भाषण के उस अंश को लोकसभा अध्यक्ष के आदेश से निकालना पड़ा।
विपक्ष के नेता का दायित्व है कि वे उन श्रेष्ठ परंपराओं का निर्वाह करें, जो हमारी संसदीय राजनीति में रही। लेकिन इस बार लोकसभा में प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान विपक्ष पूरे समय नारेबाजी करता रहा, जबकि प्रधानमंत्री ने विपक्ष के नेता का भाषण ध्यान से सुना और वे पूरे समय उपस्थित थे। इसी तरह राज्यसभा में प्रधानमंत्री के भाषण का विपक्ष ने बहिष्कार किया। इससे संसदीय मर्यादा और लोकतंत्र के बारे में चिंता होने लगी है।
पर मैं आशावादी हूँ। चीजें सुधरेंगी। यह लोकतंत्र है। आप नहीं सुधरना चाहें तो जनता सुधार देगी। रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में राज्यभिषेक के बाद रामचन्द्र जी कहते हैं-
सुनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥
यह रामराज्य गणतंत्र ही तो था जहाँ स्वयं राम जनता से यह कह सकते थे कि आप स्वतंत्र हो कुछ भी करो। मैं अनीति करूँ तो रोक देना। कदाचित डरना नहीं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का यह संवाद अयोध्या की उस तत्कालीन संसद से रहा होगा जिसे राज्य की व्यवस्था चलाने के लिए राम को परामर्श देना होता था। कितना अद्भुत विश्वास रहा होगा राम को अपने उस गणतंत्र पर। क्या हम उन मूल्यों का शतांश भी पुन: स्थापित कर सकते हैं।