Text of RM’s speech at Armed Forces Veterans’ Day

Veteran’s day पर आज, यहां आप सबके बीच आना मेरे लिए बहुत खुशी का क्षण है। सबसे पहले, मैं यहाँ उपस्थित हमारे veterans, तथा आप सभी भाइयों और बहनों को, मकर संक्रांति की ढेर सारी शुभकामनाएं देता हूं। आज का दिन देश भर में अलग-अलग त्यौहारों के रूप में मनाया जाता है। कुछ जगहों पर यह खिचड़ी के नाम से जाना जाता है, तो कुछ लोग इसे संक्रांत कहते हैं। असम जैसे क्षेत्रों में इस समय बिहू festival का आयोजन किया जाता है। कहीं पर इस समय पोंगल, तो कहीं लोहड़ी का आयोजन किया जाता है। देश भर में, इसके नाम और स्वरूप, भले ही अलग-अलग हों, लेकिन आज के दिन का उल्लास पूरे देश में एक जैसा रहता है। इसलिए इस मंच से मैं आज के दिन का उत्सव मनाने वाले हर एक भारतीय को अपनी तरफ से ढेर सारी शुभकामनाएं देता हूं।

 

साथियों, यह किसी coincidence से कम नहीं है कि हम अपने ex-servicemen, यानि veterans के सम्मान के लिए कानपुर जैसी जगह पर एकत्र हुए हैं। इस देश के सैन्य इतिहास की श्रेणी में कानपुर अपना एक अलग ही महत्व रखता है। 1857 में जब भारत के स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हुई, तो उस समय पेशवा नानासाहेब ने कानपुर के बिठूर से ही विद्रोह का नेतृत्व किया था। और जब नाना साहेब का जिक्र आता है तो उनके सेनापति तात्या टोपे का जिक्र भला कैसे ना हो। इन दोनों वीरों की वीरता की कहानी बिठूर और कानपुर तो क्या, देश भर के बच्चे-बच्चे की जुबान पर होती है।

 

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जिस आजाद हिंद फौज का गठन किया, उसकी पहली महिला कैप्टन रही, लक्ष्मी सहगल जी का भी कानपुर से बड़ा आत्मीय नाता रहा। उन्होंने तो अपने जीवन का आखिरी क्षण भी कानपुर में ही बिताया। सिर्फ सैन्य क्षेत्र में ही नहीं बल्कि भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान स्वराज की भावना जगाने में भी कानपुर का विशेष योगदान रहा। आप सब तो जानते ही हैं, कि श्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ भी कानपुर के ही रहने वाले थे, जिन्होंने “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा” जैसे गीत की रचना करके, देश के बच्चे-बच्चे के ह्रदय में हमारे तिरंगे झंडे के प्रति प्रेम पैदा किया।

 

श्रद्धेय श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का भी कानपुर से विशेष जुड़ाव रहाI अपने जीवन का एक बड़ा समय उन्होंने कानपुर में गुजारा। Masters की शिक्षा भी उन्होंने यही से ग्रहण की, और एक तरह से कहें तो राजनीति में भी उनका प्रवेश कानपुर से ही हुआ। कानपुर एक ऐसा शहर है, जो न जाने कितने महान विभूतियों के उदय का साक्षी रहा है। इसलिए ऐसे शहर में आज अपने भूतपूर्व सैनिकों का सम्मान करना निश्चित रूप से हम सबके लिए एक गर्व का क्षण है।

 

साथियों, आज हम अपने ex-servicemen, यानि veterans के बीच हैंI यहां कई सारे civilians भी उपस्थित हैं। मैं खुद भी एक civilian ही हूँ, लेकिन छात्र जीवन में NCC के माध्यम से या फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में, फिर जब केंद्र में हमारी सरकार आई तो देश के गृह मंत्री के रूप में और विशेष कर रक्षा मंत्री के रूप में तो सशस्त्र बलों के साथ मेरा बड़ा आत्मीय नाता रहा। कई बार तो मुझे ऐसा लगता है कि मेरे पिछले जन्मों के कुछ संचित पुण्य होंगे कि मुझे हमारे सैनिकों के साथ इतना आत्मीय संबंध बनाने का मौका मिला।

 

जब भी मैं अपने सैनिकों के बीच में जाता हूं, तो मुझे हमेशा इस बात की उत्सुकता रहती है, कि मुझे आज उनसे बातचीत करने का अवसर मिलेगा, मुझे आज उनसे मिलने का अवसर मिलेगा। आज veteran’s day है, आज भी जब मैं आप सबके बीच उपस्थित हूं तो मुझे वह gratitude feel हो रहा है जो इस देश के नागरिकों को अपने सैनिकों के प्रति होता है। इस देश का हर नागरिक, चाहे वह किसी भी क्षेत्र से संबंधित हो, वह अपने सैनिकों के प्रति एक विशेष स्नेह रखता है। इसलिए आज veteran’s day के अवसर पर मैं कृतज्ञ राष्ट्र की तरफ से अपने सभी पूर्व सैनिकों को, देश की उनकी सेवा के लिए नमन करता हूं।

 

साथियों, सैनिकों के साथ हमारा आत्मीय संबंध तो है ही, लेकिन हम यदि कभी एक सैनिक के perspective से सोचें, तो हमें देश के प्रति उनके emotions की गहराइयों में उतरने का मौका मिलेगा। उदाहरण के लिए, सेना का कोई जवान कारगिल की चोटियों पर तैनात है, तो Navy का कोई sailor हिंद महासागर की गहराइयों में हमारी सुरक्षा कर रहा है, तो वहीं कोई air warrior किसी सुदूर air base में हमारे वायु क्षेत्र की सुरक्षा कर रहा है।

 

कई बार मैं यह कल्पना करता हूँ, कि जब यह सैनिक अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे होते हैं, तो उन्हें यह खतरा तो बना ही रहता है, कि दुश्मन की कोई गोली कभी भी, और कहीं से भी आ सकती है, और उनके प्राण ले सकती है। स्वाभाविक है कि सशस्त्र बलों का जो कर्तव्य है, उनका कर्तव्य ही कुछ ऐसा है, कि उनका प्रतिपल मृत्यु से आमना-सामना होता है।

 

आप एक आम नागरिक को देखें। वह सड़क पर चल रहा हो। उसके बगल से कोई बहुत तेज गति से गाड़ी निकल कर चली जाए। वह एक तरह से सदमे में आ जाता है। यदि यह गाड़ी थोड़ी सी और दाएं तरफ होती या बाई तरफ होती, तो शायद उसका जीवन समाप्त हो गया होताI वह कई दिन तक इसी सोच में पड़ा रहता है। लेकिन आप उस सैनिक के बारे में सोचिए, जिसका सामना हर पल मृत्यु से हो रहा है, तो उसके अंदर एक मनोवैज्ञानिक दबाव तो आता ही होगा।

 

साथियों, उस सैनिक के मन में अपने अस्तित्व को लेकर कभी-कभी यह सवाल तो आता ही होगा, कि आखिर मैं कौन हूं, और मैं ऐसा क्यों कर रहा हूंI मैं क्यों हमेशा अपने जीवन को दांव पर लगा रहा हूं। पैसे के लिए कोई भी व्यक्ति प्राण देने का खतरा उठाए, ऐसा तो आमतौर देखने को नहीं मिलता। क्योंकि आप चाहे कितना भी पैसा कमा लें, यदि आपका जीवन ही नहीं रहेगा तो आप उस पैसे का करेंगे क्या, इसलिए पैसे का role तो यहां पर है ही नहीं। इसलिए मैं कभी-कभी यह कल्पना करता हूं, कि वह सैनिक, जिसका रोज मृत्यु से सामना हो रहा है, वह आखिर अपने को कैसे motivated रखता होगा; क्या सोचता होगा?

 

क्या वह उस समय सिर्फ अपने परिवार की सुरक्षा के बारे में सोच रहा है? क्योंकि यदि वह अपने परिवार की सुरक्षा के बारे में ही सोच रहा होता, तो वह सेना में क्यों आता ? वह अपने परिवार की सुरक्षा, अपने परिवार के बीच रहकर ज्यादा अच्छे से कर सकता है। क्या वह अपने जाति या अपने पंथ की सुरक्षा के बारे में सोच रहा होगा? यदि वह अपने जाति-पंथ के लिए सोच रहा होता, तो अपने क्षेत्र में रहकर उनके लिए काम करता। वह सैनिक वहां पर खड़ा होकर क्या सोचता होगा कि वह किन के लिए अपने प्राण दाँव पर लगा रहा है?

साथियों, मुझे ऐसा लगता है कि उस समय एक सैनिक परिवार, जाति और पंथ जैसी सोच से कहीं ऊपर उठकर पूरे राष्ट्र के बारे में सोचता है। वह जानता है, कि उसकी जाति, उसके परिवार व उसके पंथ, इन सब का अस्तित्व इस राष्ट्र के अस्तित्व से है। यदि यह राष्ट्र सनातन रहा, तो यह सारी चीज भी सनातन रहेगी। इसलिए इस राष्ट्र के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए, इस राष्ट्र की जीवंतता को बनाए रखने के लिए उसे वह नैतिक बल मिलता है, जिस कारण वह मौत का भी सामना करने को तैयार रहता है। उस सैनिक का सबसे बड़ा धर्म यह हो जाता है, कि मैं रहूं या ना रहूं, मेरा देश रहना चाहिए। क्योंकि इस देश की निरंतरता में वह भी जीवित रहेगा, उसका नाम भी जीवित रहेगा।

 

साथियों, यह तो एक सैनिक की अपने राष्ट्र के प्रति सोच है, जो वह हमारे समाज व राष्ट्र की निरंतरता को बनाए रखने के लिए, अपने भौतिक जीवन तक को कुर्बान करने को तैयार है। तो अब प्रश्न यहां यह आता है, कि जब एक सैनिक अपने राष्ट्र व समाज की रक्षा के लिए इतना तैयार रहता है, तो एक राष्ट्र व समाज के रूप में हमारी उस सैनिक के प्रति क्या जिम्मेदारियां होनी चाहिए?

 

साथियों,  मुझे ऐसा लगता है कि एक राष्ट्र के रूप में हमारा कर्तव्य यह होना चाहिए, कि हम उस सैनिक के साथ तथा उसके परिवार के साथ, ऐसा व्यवहार करें, कि आने वाली कई पीढियों तक, जब भी कोई व्यक्ति सैनिक बने, तो उसके मन में यह भाव रहे, कि यह देश उसे अपना परिवार मानता हैI यह देश उसे किसी भी मुसीबत में अकेला नहीं छोड़ने वाला। उसे यह लगे, कि उससे पहले जो लोग सैनिक रह चुके हैं, और उन्होंने राष्ट्र के लिए जो अपना सब कुछ समर्पित किया, उसके लिए उन्हें पूरा राष्ट्र कृतज्ञता से नमन कर रहा है।

 

हालांकि सरकार, पूर्व सैनिकों के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाती है। आपने ध्यान दिया होगा, कि जब से हम सरकार में आए हैं, तब से हमने पूर्व सैनिकों पर विशेष ध्यान दिया है। चाहे वह वन रैंक वन पेंशन लागू करने की बात हो, या फिर उनके लिए health care coverage provide करने की बात हो, उनके re-employment की बात हो, या फिर समाज में उनके सम्मान की बात हो, हम लगातार अपने veterans का ख्याल रखने की ओर, और ज्यादा समर्पित होते जा रहे हैं।

 

और साथियों, होना भी ऐसा ही चाहिए। मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं कह रहा हूं, कि केवल हमारी सरकार ने ही भूतपूर्व सैनिकों को, और हमारे रक्षकों को सम्मान दिया है। यह देश तो वह है, जो ईश्वर को रक्षक का दर्जा देता है, क्योंकि संरक्षण करना एक ईश्वरीय गुण हैI जीवन की रक्षा करने वाले डॉक्टरों को हमारे यहाँ भगवान का रूप माना गया हैI तो आप सोच कर देखिए, यदि ईश्वर हमारा रक्षक है, डॉक्टर ईश्वर स्वरूप हैं, तो कहीं ना कहीं हमारी सीमाओं पर जो लोग हमारी सुरक्षा कर रहे हैं, उन रक्षकों में भी ईश्वर का अंश तो मौजूद होगा ही। इसलिए अपने भूतपूर्व सैनिकों का सम्मान करना तथा उनके परिवार की देखभाल करना, यह ईशपूजा से कम नहीं होता।

 

साथियों, कोई भी परिवार अपने संसाधनों के अनुरूप ही अपने परिजनों का ख़याल रखता हैI ठीक उसी प्रकार, एक राष्ट्र भी, अपने संसाधनों के अनुरूप अपने भूतपूर्व सैनिकों का ध्यान रखता है। जैसे-जैसे यह राष्ट्र प्रगति करता जा रहा है, हम अपने भूतपूर्व सैनिकों की well-being की ओर, और अधिक capacity से बढ़ते जा रहे हैं। हम जैसे-जैसे विकास के नए आयाम गढ़ते जाएंगे, हमारे संसाधनों में वृद्धि होती जाएगी, और हम अपने सैनिको की सेवा और ज्यादा कर पाएँगे, लेकिन यदि इच्छा शक्ति में कमी होगी तो उसे दूर करने का कोई उपाय नहीं है।

 

इसलिए मैं चाहता हूं, कि एक राष्ट्र के नागरिक के रूप में हम, अपने सैनिकों के सम्मान के लिए अपनी इच्छा शक्ति को और मजबूत करें। एक सरकार के रूप में हमने सुनिश्चित किया है, कि हम अपने भूतपूर्व सैनिकों के सम्मान के लिए प्रतिबद्ध रहें, और वह चीज भारत के नागरिकों में भी reflect हो रही है। पिछले कुछ दिनों में, मैं कुछ जगहों पर CSR conclave में गया, वहां मेरी उद्योगपतियों से तथा आम नागरिकों से भी बातचीत हुई। मुझे ऐसे-ऐसे उद्योगपतियों से तथा आम नागरिकों से बातचीत करने का अवसर मिला, जो अपनी इच्छा से सेना के लिए कुछ ना कुछ करना चाहते हैं।

 

मैं गुजरात में, ‘मारुति वीर जवान trust’ के कार्यक्रम में गया। वहां पर उन्होंने हमारे शहीदों के परिवारों की आर्थिक जरूरतों का ध्यान रखने के लिए ही एक trust का गठन कर दिया है। मैं कई बार NRIs से भी मिलता हूं, तो वह भी सेना के लिए कुछ ना कुछ करना चाहते हैं। मैं यहाँ पैसे की बात नहीं कर रहा हूं, मैं यहां बात कर रहा हूं इच्छाशक्ति की। इस देश के नागरिकों के अंदर ऐसी इच्छा शक्ति है कि वह अपने सैनिकों के लिए तथा अपने रक्षकों के लिए कुछ ना कुछ करना चाहते है।

 

साथियों, इस देश में उद्योगपति तथा आम नागरिकों को तो छोड़िए, साहित्यकार तक भी अपनी साहित्यिक रचनाओं से सैनिकों का गुणगान करते हैं। श्याम नारायण पांडे जी की एक रचना आप सब ने सुनी होगी कि,

मुझे जाना गंगा सागर, मुझे रामेश्वर काशी,

तीर्थराज चित्तौड़ देखने को, मेरी आँखे प्यासी।

और हमारे भारतीय सैनिकों का शौर्य ऐसा है कि सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों में भी उनका सम्मान होता है। प्रथम विश्व युद्ध या द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जो भारतीय सैनिक दूसरे देशों की रक्षा, या स्वतंत्रता के लिए लड़ने गए थे, उनकी चर्चा सम्मानपूर्वक दुनिया भर में होती है। हमारे सैनिकों की बहादुरी, integrity, professionalism और मानवता की चर्चा तो भारत से बाहर भी मशहूर है।

 

साथियों, ऐसा नहीं है कि सिर्फ विदेशी ही हमारे सैनिकों का सम्मान करते हैं। दरअसल हम भारतीयों की चेतना पर जब आप गौर करेंगे, तो आप पाएंगे कि हम अपने सैनिकों का तो सम्मान करते ही हैं, लेकिन साथ ही साथ हम, न्याय के पक्ष में खड़े दूसरे देशों के सैनिकों का भी सम्मान करते हैं। क्योंकि हमारा यह मानना होता है, कि कोई भी सैनिक अपने राष्ट्र की रक्षा कर रहा है, वह अपना कर्तव्य निभा रहा है, इसलिए आपको भारत के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलेगा, जहाँ हमने किसी दूसरे देश के सैनिक के साथ कभी अमानवीय व्यवहार किया हो। 1971 का भारत-पाकिस्तान war का ही उदाहरण लीजिए। इस war में, पाकिस्तान के 90,000 से अधिक सैनिकों ने भारत के सामने surrender कर दिया था। भारत उनके साथ चाहे जैसा सुलूक कर सकता था। पर हमारी संस्कृति देखिए, हमारा tradition देखिए, कि भारत ने उन सैनिकों के प्रति पूरी तरह मानवतावादी रवैया अपनाया, और आगे चलकर उन सैनिकों को पूरे सम्मान के साथ उनके देश भेज दिया। शत्रु सैनिकों के साथ भी ऐसे व्यवहार को, मैं मानवता के स्वर्णिम अध्यायों में से एक मानता हूँ।

 

मुझे स्वयं भी कई बार जब विदेशी दौरों पर जाने का अवसर मिलता है तो मैं वहाँ भारतीय सैनिकों के साथ-साथ विदेशी सैनिकों के memorial में भी जाता हूँ, क्योंकि यह बात हमारी चेतना में बसी हुई है कि हम किसी भी योद्धा का सम्मान करते हैं। और बात जब भारतीय veterans की आती है, तो उनके लिए सम्मान के साथ-साथ अपनापन भी आ जाता है।

 

इसलिए मैं आयोजकों का विशेष धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने हमारे भूतपूर्व सैनिकों के सम्मान के लिए सम्मेलन का आयोजन किया। आज का सम्मेलन हमारे सैनिकों का सम्मान तो दिखाता ही है, लेकिन साथ ही साथ यह नागरिकों के अंदर हमारे सैनिकों के प्रति बढ़ते सम्मान को भी दर्शाता है। अंत में, इस विश्वास के साथ, कि देश के सैनिकों के प्रति हमारा सम्मान लगातार बढ़ेगा, और उनके साथ हमारी आत्मीय भावना लगातार मजबूत होगी, मैं अपनी बात को समाप्त करता हूं।

आप सबका बहुत-बहुत धन्यवाद।

जय हिंद,

जय हिंद की सेना!