“नदेदावड़ा देवरू” युग-पुरुष श्री श्री शिवकुमार महास्वामीजी के 118वें जयंती समारोह में सम्मिलित होना मेरे लिए अत्यंत हर्ष का विषय है। मैं आप सभी का आभारी हूं कि आपने इस महत्वपूर्ण अवसर पर मुझे अपने बीच आमंत्रित किया।
महास्वामीजी भौतिक रूप में हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनकी ‘Divine Spiritual Energy’ आज भी हम महसूस कर सकते हैं। शायद इसी वजह से मुझे यहाँ आकर “Spiritual Fulfilment” यानी आध्यात्मिकता की भी अनुभूति हो रही है।
मैं महास्वामीजी के चरणों में श्रद्धा भाव से नमन करता हूं। और आप सभी को उनके जन्म महोत्सव और गुरु वंदना महोत्सव की ढेर सारी शुभकामनाएं देता हूं।
मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि श्री सिद्ध गंगा मठ, स्वामी जी के आदर्शों को जन सामान्य तक पहुँचाने में जुटा है। इस कार्य के लिए मैं इस मठ से जुड़े सभी लोगों को बहुत बधाई देता हूं।
श्री श्री शिवकुमार महास्वामीजी की महान विरासत यानी Enduring Legacy को आगे बढ़ाने का जो महत्वपूर्ण कार्य श्री सिद्धलिंग महास्वामी जी ने किया है वह अत्यंत सराहनीय है। अपने कार्यों से उन्होंने न केवल श्री श्री शिवकुमार जी की विरासत को समृद्ध किया है बल्कि उच्च जीवन आदर्शों यानी Ideal Human Values को भी प्रस्तुत किया है।
देवियो और सज्जनो,
देवी चामुंडेश्वरी की पावन भूमि कर्नाटक अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और कला आदि में अपने बहुमूल्य योगदान के लिए जानी जाती है। यहाँ आकर और अपने कन्नडिगा भाई-बहनों से मिलकर मुझे हमेशा ही बहुत खुशी महसूस होती है।
यह राज्य संत बसवन्ना, अल्लम-प्रभु, अक्का-महादेवी, पुरंदर-दास और कनक-दास जैसे संत-कवियों की भूमि है। यहाँ के लोगों ने भारत की Civilisational Journey में बहुत बड़ा योगदान दिया है। मेरा विश्वास है कि भविष्य में भी यहाँ के लोग राष्ट्र निर्माण के कार्य में ऐसे ही योगदान देते रहेंगे।
देवियो और सज्जनो,
हम सब जानते हैं कि दुनिया की अधिकांश प्राचीन सभ्यताएं या तो विलुप्त हो गई या उनका पतन हो गया। लेकिन हमारी 5000 वर्ष पुरानी सभ्यता तमाम Onslaughts के बावजूद भी न केवल निरंतर बनी रही है बल्कि और अधिक सशक्त हुई है।
कई Invaders ने भारतीय संस्कृति को नष्ट करना चाहा। लेकिन इस देश के संतों ने हमारी संस्कृति को जीवित रखा है। यह हमारे महा-स्वामी जी जैसे संत-महात्माओं की ही देन है कि हमारी संस्कृति जीवंत बनी हुई है।
साथियों, स्वामी जी भारत की महान संत परंपरा के ध्वज-वाहक तो थे ही, साथ में उन्होंने भारत की सांस्कृतिक धरोहर यानी Cultural Heritage को भी बहुत Enrich किया है। उनके द्वारा किए गए Social Welfare के कार्य हम सभी के लिए Inspiration हैं।
देवियो और सज्जनो,
संतों का जीवन, सिर्फ अपने लिए नहीं होता, बल्कि समाज को समर्पित होता है। इस बात का उदाहरण स्वामी जी और श्री सिद्धगंगा मठ के कार्यों में Reflect होता है। पिछले 600 वर्षों से यह मठ समाज कल्याण यानी Social Welfare के कार्यों में निरंतर जुटा हुआ है।
श्री सिद्धगंगा मठ आज के आधुनिक समय में गुरुकुल की महान परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। बिना किसी जाति या पंथ के भेदभाव के 10,000 से अधिक गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा के साथ भोजन और आश्रय प्रदान करना, मेरे हिसाब से किसी धार्मिक अनुष्ठान से कम नहीं है।
मुझे यह भी बताया गया है कि यह मठ विभिन्न स्थानों पर दृष्टि-बाधित यानि “Visually Impaired” बच्चों के लिए Schools भी संचालित करता है। इन स्कूलों में बच्चों को निःशुल्क शिक्षा, भोजन और छात्रावास सुविधाएँ दी जाती हैं।
आध्यात्मिकता से प्रेरित मानवता और करुणा की इससे बेहतर अभिव्यक्ति और क्या हो सकती है?
देवियो और सज्जनो,
आज Sree Siddaganga Education Society के द्वारा 128 Educational Institutions चलाए जा रहे हैं। इसमें उच्च शिक्षा के लिए Engineering और Medical College से लेकर High Schools तक शामिल हैं।
एक तरफ इस संस्थान द्वारा आधुनिक शिक्षा के लिए Engineering, Medical और Technical Colleges शुरू किए हैं, वही हमारी Cultural Heritage को बढ़ावा देने के लिए संस्कृत कॉलेज भी शुरू किया गया है। संस्कृत को बढ़ावा देने का यह प्रयास अत्यंत सराहनीय है।
संस्कृत भाषा के महत्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि आज भी भारत से बाहर कई देशों में इसका प्रभाव बना हुआ है।
उदाहरण के तौर पर, नेपाल के “Emblem” का “Motto’ है – “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।” यह वाल्मीकि रामायण से लिया गया है और इसका अर्थ है, “माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं”।
अंगकोर वाट में “अंगकोर” शब्द संस्कृत के “नगर” शब्द से आया है, जिसका अर्थ है “शहर”। ऐसे कई उदाहरण South Asia और South-East Asia में पाए जाते हैं।
“संस्कृत” का अर्थ है “Polished” या “Refined”. यह संस्कृति जैसे शब्दों से जुड़ा हुआ है, जिसका अर्थ है संस्कार या सभ्यता। जिस भाषा की “Etymology” यानि मूल ही इतना महान हो वह भाषा कितनी महान होगी इसे समझने में किसी को मुश्किल नहीं होनी चाहिए। और आप ऐसी महान भाषा को बढ़ावा दे रहे हैं, यह बात हर लिहाज़ से प्रशंसा के योग्य हैं।
मुझे बताया गया, कि 10,000 से भी अधिक बच्चों के शिक्षा, भोजन और आवास की उत्तम व्यवस्था सिद्धगंगा मठ द्वारा की गई है। यह “अन्न दासोहा – विद्या दासोहा” की उस Spirit को दिखाती है, जिसे स्वयं स्वामी जी follow करते थे।
आज इस मठ द्वारा 128 Institutions चलाए जा रहे हैं। यह यात्रा एक सामान्य यात्रा नहीं है, बल्कि महान सांस्कृतिक मूल्यों की यात्रा है जिसका प्रतिनिधित्व सिद्धगंगा मठ बरसों से करता आया है।
यह यात्रा है महान सांस्कृतिक मूल्यों को स्थापित करने की। यह यात्रा है शिक्षा को नए आयाम देने की। यह यात्रा है समाज सेवा के ऊंचे मानक स्थापित करने की। यह यात्रा है एक सशक्त राष्ट्र के निर्माण की। This is a journey to establish great cultural values. This is a journey to give new dimensions to education. This is a journey to establish high standards of social service. This is a journey to build a strong nation.
आज जब हम सब एक ‘नए भारत’ के निर्माण में प्रयासरत हैं और ‘आत्मनिर्भर भारत’ के सपने को साकार करने में जुटे हुए हैं, तो हमें यह समझना होगा कि यह तभी संभव है, जब हम अपनी महान Civilizational values को समझें। और इसे समझने के लिए हमें महास्वामीजी जैसे महापुरुषों की Life और Philosophy को समझना होगा।
साथियों, जब मैंने सिद्ध गंगा मठ द्वारा किए जा रहे, इन सारे कामों को देखा, तो मेरे जेहन में ऋग्वेद का एक श्लोक याद आ गया “आत्मनो मोक्षार्थं जगत हिताय च” ।
ऋग्वेद के इस श्लोक में कहा गया है कि संत वह है जो अपने मोक्ष के साथ-साथ, जगत के हित के लिए काम करे। संत वह है, जो धर्म की जय के लिए काम करे। संत वह है, जो अधर्म के नाश के लिए काम करे। संत वह है, जो प्राणियों में सद्भावना के लिए काम करे। संत वह है, जो विश्व के कल्याण के लिए काम करे।
जब हम स्वामी जी की जीवन-यात्रा को देखते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने अपना पूरा जीवन मानवता के कल्याण के लिए न्योछावर कर दिया। और वह संत की इस परिभाषा में बिल्कुल फिट बैठते हैं।
साथियों, जिस तरह से हर व्यक्ति या वस्तु का कुछ न कुछ स्वभाव होता है, वैसे ही देश का भी अपना एक चरित्र और पहचान होती है। भारत का चरित्र हमेशा आध्यात्मिकता और मानवता की सेवा का रहा है। और हमें इस पहचान को हमेशा बनाए रखना है।
आर्थिक समृद्धि और भौतिक सुखों की खोज यानि Economic prosperity और material pursuits की ओर तो हमें ध्यान देना ही होगा लेकिन साथ में भारत की आध्यात्मिकता और मानवता की सेवा के चरित्र को भी बनाकर रखना होगा।
देवियो और सज्जनो,
स्वामीजी मानते थे कि शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य चरित्र निर्माण है। मैं मानता हूँ कि शिवकुमार महास्वामीजी की यही बात, इस मठ द्वारा संचालित Educational Institutions को अलग बनाती हैं।
मैं स्वयं यह बात मानता हूं कि किसी भी Education System का उद्देश्य सिर्फ ‘Professional Field’ में सफलता दिलाने तक सीमित नहीं होना चाहिए। वास्तव में शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण यानि Character Building भी होना चाहिए। क्योंकि बिना मूल्यों की शिक्षा से हम Artificial Intelligence तो बना सकते हैं, लेकिन Emotional Intelligence नहीं पैदा कर सकते हैं। ऐसी शिक्षा Guided Missiles बना सकती है लेकिन युवाओं को Misguided होने से नहीं रोक सकती है। ऐसी शिक्षा से हम Upgraded Computers तो बना सकते हैं लेकिन शायद उन्हें Operate करने वाले लोग Downgraded Humans होंगे जो मानवता का अहित ही करेंगे।
इस लिए अगर जीवन को सफल और सार्थक बनाना है तो शिक्षा व्यवस्था को आदर्शों और मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरना पड़ेगा।
साथियों, अंत में गुरु-वंदना के इस पवित्र अवसर पर मैं भारत की ऐतिहासिक गुरु परंपरा पर कुछ बातें आपसे करना चाहूंगा। भारत में अनेक Philosophical Traditions रहे हैं। उन सभी के Centre में हमेशा एक गुरु होता है।
भारत में कई सारे संप्रदाय तो ऐसे भी हैं, जिनका आधार गुरु की वाणी ही है। वो वाणी जो सत्य और शाश्वत है। जिसका न कोई आदि है न कोई अंत है।
श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है – गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई। जौ बिरंचि संकर सम होई।। अर्थात भले ही कोई ब्रह्मा जी और शंकर जी के समान ही क्यों ना हो लेकिन गुरु के बिना वह भवसागर को पार नहीं कर सकता है।
स्वामी जी ने गुरु के रूप में, हर मानव के अंदर ईश्वर को देखने का जो मूल्य अपने अनुयायियों को दिया है, वह मानवता के कल्याण और अस्तित्व को बनाए रखने का आधार है।
संकीर्ण मन से कोई महान नहीं बन सकता है। और जितना बड़ा आपका मन होता जाता है आपका सुख भी उतना ही बढ़ता जाता है। गुरुओं और संतों के सानिध्य में आने से हमारा मन बड़ा होता है यानि Elevate होता है। जिससे हमारा सुख यानी Happiness भी Elevate होती है। यही बात हमारे वसुधैव कुटुम्बकम के मूल्य का भी आधार है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ लोगों द्वारा यह कहा जाता है कि North ने South को कई मामलो में Dominate किया, यह पूरी तरह से गलत है। कर्नाटक की यह धरती प्रमाण दे रही है कि दक्षिण ने उत्तर को अनेक बार धर्म के क्षेत्र में नई दिशा दी। इसका प्रमाण है कि काशी के आचार्य मंडन मिश्र जी और आदि शंकराचार्य का शास्त्रार्थ जो भारतीय संस्कृति का सबसे प्रसिद्ध शास्त्रार्थ है। जिसमें शंकराचार्य जी ने मंडन मिश्र जी को पराजित कर दिया था। आचार्य मंडन मिश्र जी शंकराचार्य जी के शिष्य बन गये और यह एक प्रचलित मान्यता है कि वे कर्नाटक में आकर श्रृंगेरी में आचार्य सुरेशाचार्य जी के रूप में वे शंकराचार्य बने। इसका अर्थ यह हुआ कि ज्ञान को लेकर भारत कि परम्परा कितनी उदार थी और सच को स्वीकार करने में तनिक भी संकोंच नहीं करती थी।इसलिए मैं मानता हूँ कि आज मतभेद पैदा करने के लिए गुलामी के कालखंड में किये गए दुष्प्रचार से मुक्त होने की आवश्यकता है।
मैं एक बार फिर से आप सभी को धन्यवाद देता हूं कि आपने इस अवसर पर मुझे आमंत्रित किया। इस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब मिलकर इसी प्रकार भारतीय लोगों और संस्कृति के विकास के लिए कार्य करते रहेंगे, मैं स्वामी जी के चरणों में नमन करते हुए अपनी बात को समाप्त करता हूं।
बहुत-बहुत धन्यवाद।