Hindi Text of RM’s speech in ‘Maharshi Dayanand Smriti Vyakhyanmala’ in Hansraj College, Delhi.

सबसे पहले तो, हंसराज कॉलेज के प्रांगण में उपस्थित आप सभी शिक्षकगण, छात्रों को मैं शिक्षक दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं देता हूं। मैं स्वयं भी एक शिक्षक रहा हूँ। ऐसे में आज मैं आपलोगों से एक रक्षामंत्री के नाते नहीं, बल्कि एक शिक्षक के रूप में मिलने आया हूँ।

शिक्षक दिवस पर मैं पूर्व-राष्ट्रपति, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को, अपनी तरफ से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। श्री राधाकृष्णन जी एक बहु आयामी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। हम सब उन्हें भारत के राष्ट्रपति के तौर पर, एक राजनीतिक व्यक्ति के रूप में तो जानते ही हैं, लेकिन राजनीति के अलावा उन्होंने शिक्षा तथा दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में भी शिक्षक के रूप में उन्होंने सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी अपना लोहा मनवाया। जब वह भारत के राष्ट्रपति बने तो वह कोई साधारण क्षण नहीं था। वह समय इसलिए असाधारण था, क्योंकि पहली बार दर्शनशास्त्र का कोई शिक्षक इतने बड़े पद पर पहुंचा था। यूरोप के बहुत बड़े दार्शनिक थे प्लेटो। उन्होंने दार्शनिकों के राजा बनने की इच्छा जताई थी। यूरोप का तो मालूम नहीं, लेकिन भारत में दर्शनशास्त्र के एक शिक्षक ने देश के सर्वोच्च पद तक पहुंच कर बता दिया कि इस देश का शिक्षक किसी भी दृष्टि से साधारण नहीं है।

 

साथियों, भारत भूमि ऋषियों की भूमि रही है, जिन्होंने अपनी ज्ञान परंपरा से इस देश में गुरुकुल पद्धति की शुरुआत की। एक ऐसी गुरुकुल पद्धति जिसमें इस राष्ट्र का नेतृत्व करने वाले युवाओं को तैयार किया जाता था। एक ऐसी गुरुकुल पद्धति जिसने सदैव राजसत्ताओं का मार्गदर्शन किया। हमारे यहाँ गुरुओं और विद्वानों का स्थान राजा के स्थान से भी ऊपर माना गया है; क्योंकि शिक्षा के इस मंदिर के पुजारी, अर्थात् गुरु से ही राष्ट्र व संस्कृति का भविष्य तय होता है। ‘स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते’ जैसा कथन गुरुओं और विद्वानों की व्यापक स्वीकृति और सम्मान का ही प्रतीक है।

हमारे शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है, कि यस्य नास्ति गुरो: कृपा तस्य विश्वस्य निवर्तनम्। अर्थात्, जिसके पास गुरु की कृपा नहीं है, उसके लिए संसार में कुछ भी नहीं है। यह शाश्वत सत्य है कि किसी व्यक्ति को ordinary से extraordinary बनाने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ गुरु के हाथ में होती है। गुरु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर लेकर जाते हैं।

 

भारत की विशाल गुरु परंपरा के इन्हीं वाहकों में अग्रणी, स्वामी दयानंद सरस्वती जी की स्मृति में व्याख्यान-माला आयोजित करने के लिए, हंसराज कॉलेज साधुवाद का पात्र है।

भारत के राष्ट्रीय पुनर्जागरण में स्वामी जी का जो योगदान रहा है, उसे भुलाया नहीं जा सकता। जैसा कि मैं अभी जिक्र कर रहा था, कि गुरु एक प्रकाश पुंज की भांति हमें अंधकार से बाहर निकालने का प्रयास करते हैं। आप 19वीं शताब्दी के उस कालखंड की कल्पना करिए, जब भारत ब्रिटिश हुकूमत में अनेक सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक विसंगतियों से ग्रस्त था। उस समय की कल्पना करिए कि 900 सालों से गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हुए भारत में अंधकार कितना घना था। स्वाभाविक है, जब अंधकार इतना घना होगा तो उसके लिए प्रकाश पुंज भी उतना ही तीव्र होना चाहिए।

उसके लिए प्रकाश पुंज भी ऐसा होना चाहिए जो उसे घने अंधेरे को अपनी तीव्रता से मात दे सके। और स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने उसी प्रकाश पुंज की भूमिका निभाई। उनका ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ ऐसा ही प्रकाश पुंज था जिसकी आभा आज तक भारतीय समाज में परिव्याप्त है। स्वामी दयानंद सरस्वती उन गुरुओं में थे जिन्होंने भारत के पुनर्जागरण का शंखनाद किया।

 

भारतीय पुनर्जागरण की उस प्रक्रिया में स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रभावित होकर महात्मा हंसराज जी ने समाज सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया।

देश के युवाओं को महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा प्रतिपादित वैदिक शिक्षा में शिक्षित करने के लिए उन्होंने देश में कई स्थानों पर DAV Schools की स्थापना की। दिल्ली में आज हंसराज college, उसी महान परंपरा का अनुकरण करते हुए जिस तरह से विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण, व उनके जीवन को दिशा देने का कार्य कर रहा है, वह निश्चित रूप से स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा हंसराज जी के जीवन मूल्यों का प्रतिबिंब है। मैं समझता हूं यदि दिल्ली विश्वविद्यालय भारतीय उच्च शिक्षा जगत का एक मुकुट है, तो हंसराज कॉलेज उस मुकुट में एक मणि के समान है।

 

साथियों, जिस समय स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने भारतीय समाज में वेदों के प्रति व अपने प्राचीन ज्ञान विज्ञान के प्रति चेतना जगाने का कार्य किया और जिस समय महात्मा हंसराज जी ने DAV Schools के माध्यम से स्वामी जी की शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने का प्रण लिया, वह एक बेहद विपरीत समय था। वह एक ऐसा समय था, जिसमें भारत गुलामी की बेड़ियों में तो जकड़ा ही हुआ था, साथ ही साथ भारत की महान ज्ञान परंपरा को भी दोयम दर्जे का बताया गया। आप सब तो यह जानते ही होंगे कि कैसे मैकाले ने यह कहकर भारतीय प्राच्य विद्या का अपमान किया था, कि “एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की केवल एक shelf समूचे भारतीय साहित्य के बराबर है।”

 

ऐसा कहकर उसने भारतीयों के मन में अपनी प्राचीन विद्या के प्रति एक भ्रांति फैलाई। यदि उस समय इस भ्रांति को इन महान शिक्षाविदों द्वारा तोड़ा न जाता तो यह भ्रांति देशवासियों के मन में बैठ जाती। भ्रांतियों की एक बुरी बात यह होती है, कि यदि उन पर समय रहते प्रहार न किया जाए, तो एक समय के बाद उन्हें सत्य मान लिया जाता है। स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा हंसराज ने आर्य समाज और DAV schools के माध्यम से न सिर्फ इस भ्रांति पर प्रहार किया बल्कि हमारा राष्ट्रीय व सांस्कृतिक आत्मविश्वास भी वापस लौटाया।

 

साथियों, अब तक मैंने भारतीय ज्ञान परंपरा और उसमें गुरु के महत्व पर आपसे चर्चा की। अब मैं आपसे शिक्षा और प्रशिक्षण पर भी कुछ बातें करना चाहूंगा। मेरे विचार में शिक्षा के 3 स्तम्भ होते हैं – पहला- शिक्षक, इसके बारे में मैंने अभी आपसे बात की; दूसरा- शिक्षार्थी, जो शिक्षा ग्रहण करता है; और तीसरा- शिक्षा के transmission का माध्यम, जो मूलतः किताबें होती हैं।

 

किताबें ज्ञान का महत्त्वपूर्ण माध्यम होती हैं। किताबों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान का हस्तांतरण होता है।

इसलिए किताबों का छपना मानव इतिहास की सबसे क्रांतिकारी घटनाओं में से एक मानी गई है। जब प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत गुटेनबर्ग ने की थी, तो उससे यूरोप के पुनर्जागरण को और बल मिला था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी अनेक किताबों व पत्रिकाओं ने स्वतंत्रता संग्राम को और गति प्रदान की।

एक प्रसिद्ध अमेरिकी इतिहासकार बारबारा टचमैन तो यह भी कहती हैं कि Books are the carriers of civilization. Without books, history is silent, literature is dumb, science is crippled, thought and speculation at a standstill. अर्थात्, पुस्तकें सभ्यता की वाहक होती हैं।

पुस्तकों के बिना, इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा है, विज्ञान पंगु है, विचार और अटकलें रुकी हुई हैं। पुस्तकों के बिना सभ्यता का विकास ही असंभव होता।

साथियों, जो किताबें पहले भोजपत्रों पर लिखी जाती थीं, उन किताबों ने आज एक बहुत लंबी यात्रा तय की है, और उन भोजपत्रों से निकल कर आपके bookshelf से होते हुए आपके मोबाइल तक में जगह बना ली है। किताब भी हमारे लिए गुरु के समान है। भारत की बात यदि मैं करूँ तो हम देखते हैं कि वेदों, उपनिषदों व प्राचीन शास्त्रों ने किस प्रकार से पुस्तकों के रूप में भारतीय संस्कृति रूपी रथ के लिए एक सारथी की भूमिका निभाई है।

 

आप पश्चिम में देखें तो यही पाएँगे कि Old and new testament ने वहाँ पर सभ्यता के निर्माण में एक बड़ी भूमिका निभाई। मध्य पूर्व में ठीक वही भूमिका कुरानशरीफ ने निभाई।

 

भारत में भी, मध्यकाल में एक ऐसी ही पुस्तक देखने को मिली, जिसे श्रीरामचरितमानस के रूप में जाना जाता है। वह मध्यकाल का समय था, जब भारत की सनातन चेतना कई आक्रमण-कारियों के आघात को झेलकर सुसुप्त अवस्था में जा चुकी थी। जब भारतीय संस्कृति पर एक घना कोहरा छा गया था, तब गोस्वामी तुलसीदास ने राम के चरित्र को श्रीरामचरितमानस के रूप में उतारकर भारतीय समाज को एक प्रेरणा दी कि राम के चरित्र को जीवन में उतार कर ही इस कोहरे से पार पाया जा सकता है।

 

जैसा मैंने पहले कहा, कि किताबें ज्ञान के TRANSMISSION का एक माध्यम होती हैं। लेकिन कुछ किताबें ऐसी भी होती हैं, जो अपने आप में ही संपूर्ण होती हैं। वह किसी knowledge transmission का माध्यम भर नहीं होतीं, बल्कि knowledge का source होती हैं।

वह सभ्यताओं के उद्गम का आधार होती हैं। सभ्यताओं की यात्रा उन पुस्तकों के इर्द-गिर्द होती है। आपमें से शायद कई लोग समझ गए होंगे कि मैं वेदों की बात कर रहा हूँ। आपमें से कई लोग इतिहास व दर्शनशास्त्र से भी रूचि रखते होंगे, जो जानते होंगे कि वेद शब्द संस्कृत के मूल धातु ‘विद‘ शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है ‘जानना’। कई लोग वेद को अपौरुषेय या देवकृत भी मानते हैं, जिसका अर्थ हुआ कि वेदों को किसी पुरुष या देवता द्वारा लिखा नहीं गया है, बल्कि यह श्रुति व स्मृति के माध्यम से सुनाए ज्ञान पर आधारित है।

 

आजकल तो किताबें PDF के रूप में भी आ जाती हैं। आज किताबों का स्वरूप computer के bytes, या फिर कहें तो motherboard के electric signals हैं। लेकिन किताबों का एक दूसरा स्वरूप पन्नों पर स्याही के रूप में भी मिलता है। जिससे एक प्रकार का अंतरंग रिश्ता हुआ करता था, कई लोगों को तो कागज़ी किताबों की खुशबू से एक अलग किस्म का लगाव होता है। उसे थोड़ा सा और पहले जाएं तो किताबें भोजपत्रों पर लिखी जाती थीं। अगर कागज पर लिखी हुई किताबों पर अपनापन नजर आता था, तो भोजपत्र व बेलपत्रों पर लिखी हुई किताबों में एक समाज की तपस्या नजर आती थी।

जहाँ ऋषि-मुनियों ने समाज के ज्ञान को संजोकर रखने के लिए उसे भोजपत्रों पर उतारा था। वह समय था जब किताबों की दूसरी कॉपी बनाने में सालों-साल लग जाते थे। लेकिन उन किताबों से भी पहले, oral tradition होने के नाते वेद, हमारे समाज के मस्तिष्क में थे, हमारी आस्था में थे। कई वर्षों की श्रवण परंपरा से वेद भारतीय समाज की आत्मा में रच बस गए थे।

 

यह वेद ही थें, जिन्होंने न सिर्फ ज्ञान के प्रकाश पुंज के रूप में कार्य किया बल्कि विधि-विधान व सामाजिक नियमों के रूप में भी भारत की संस्कृति का मार्गदर्शन किया।

वेदों में धार्मिक व आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ भौतिक एवं सामाजिक ज्ञान भी था, कि समाज किस प्रकार के नियमों से संचालित होगा, तथा किस प्रकार के नियमों का पालन करके भौतिक वस्तुओं का उपभोग किया जा सकता है।

 

हम सभी बोलचाल की भाषा में कहते रहते हैं कि भारत की संस्कृति बहुत पुरानी है। और इस संस्कृति पर न जाने कितने आक्रमण हुए फिर भी हम पूरे गर्व के साथ आज भी Survive कर रहे हैं। लेकिन क्या कभी हमने यह सोचा है कि इस संस्कृति का basis क्या है? आखिर इतनी विशाल संस्कृति विकसित कैसे हुई?

जब हम इन प्रश्नों की गहराई में उतरते हैं तो हमें इसका आभास होता है कि जिसे हम भारतीय संस्कृति के नाम से जानते हैं, उसका basis हमें वेदों द्वारा निर्धारित सामाजिक नियमों व सांस्कृतिक विधानों में मिलता है; वेदों में वर्णित विज्ञान-गणित आदि में मिलता है। इसी प्रकार और दृष्टियों से भी वेदों का महत्त्व देखा जा सकता है।

 

उदाहरण के लिए, वेद, बहुत सारी गणितीय अवधारणाओं का उल्लेख करते हैं। इसलिए यह माना जा सकता है कि एक विज्ञान के रूप में गणित भी वैदिक काल में अस्तित्व में था।

आप शुल्वसूत्र का उदाहरण देख सकते हैं, जिसने पाइथागोरस theorem के आने से कहीं बहुत पहले, ज्यामितीय दृष्टिकोण को पूरी दुनिया के सम्मुख पेश कर दिया गया था।

वेद ज्ञान का भंडार हैं, पर इस देश में सैकड़ों वर्षों को ग़ुलामी और पश्चिमी प्रभाव ने वेद के ज्ञान को नकारने का काम किया।

ऋग्वेद में लिखा है,

अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम् ।

इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥

इसका अर्थ है कि चंद्रमा के पास अपनी रोशनी नहीं है बल्कि सूर्य से रोशनी लेता है।यह बात ऋग्वेद मे लिखी हैं जिसकी खोज वैज्ञानिकों ने बहुत बाद मे की।

 

Motion of Earth से लेकर Gravitational Force से जुड़े तथ्य ऋग्वेद मे पाए जाते हैं।

Vedic mathematics, वेदों का विश्व प्रगति में योगदान का एक और उदाहरण है। Vedic mathematics का world progress मे बहुत महत्वपूर्ण योगदान हैं जिसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई हैं।

 

वैदिक संस्कृति की मदद से जो Mathematics मे Progress हुआ उसके बिना आधुनिक युग के बहुत से आविष्कार मुमकिन नहीं हो पाते।पूरे विश्व में गिनती करना तब सड़क हुआ जब भारतीय अंकों से पूरी दुनिया का परिचय हुआ। उसे वे अरेबिक नंबर बोलते थे क्योंकि उनके वहाँ वह अरब के रास्ते पहुँची। जबकि अरबी लोग इन नंबर्स को भारतीय कह के पुकारते थे। वे कहते थे ये अल-अरकान-अल-हिंदू है और मैथ्स को ‘हिन्दी सत्’ यानि इंडियन आर्ट कह कर बुलाते थे।

 

शून्य भी वैदिक गणना का ही हिस्सा है। सुलभ सूत्र में वैदिक मैथ्स के सूत्र हैं जिनको कई हज़ार वर्ष ईसा पूर्व माना गया है। मगर ग़ुलामी के चलते हम यह भूल गये कि वैदिक गणित से न केवल कट गये बल्कि यह भूल गये कि सामान्य गणित से कहीं बेहतर है। जब मैं उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री था तो पूरे भारत में संभवतः किसी प्रदेश में पहली बार वैदिक गणित की पढ़ाई शुरू हुई।

 

इसी तरह आयुर्वेद भी अथर्ववेद का हिस्सा है। आज आयुर्वेद की लोकप्रियता फिर से देश दुनिया में बढ़ रही है।

 

इसी अथर्ववेद मे schizophrenia (इस्किडज़ोफ़्रेनिया) और अलग अलग तरीके के phobias का जिक्र हैं, जिस पर आज भी मनोचिकित्सक शोध कर रहे हैं।

 

मतलब वेदों में ऐसा बहुत कुछ छिपा हुआ है जिस पर आज नये ढंग से शोध करने की अवशायकता है।

 

मैं अभी किसी पोर्टल पर इसरो के चेयरमैन एस सोमनाथ का एक साक्षातकार देख रहा था जिसमें उन्होंने कहा है कि जिसमें उन्होंने कहा “Algebra, square roots, concepts of time, architecture, the structure of the universe, metallurgy, even aviation were first found in the Vedas, travelled to Europe through Arab countries, and were subsequently posited as discoveries of scientists of the western world.”

 

मैंने देश में कई दायितों का निर्वहन किया है और वर्तमान में रक्षामंत्री के रूप में अपनी सेवाएँ दे रहा हूँ। पर मुझसे कभी पूछा जाए, कि मेरी अब तक की उपलब्धियां क्या-क्या रही हैं। तो उनमें मेरी जो achievements होंगी, उनमें एक achievement यह भी होगी, कि उत्तर प्रदेश का शिक्षा मंत्री रहते हुए मैंने वहाँ के पाठ्यक्रम में वैदिक mathematics शामिल करवाया। वैदिक गणित की क्या महत्ता है, इस पर बात करने की बहुत आवश्यकता मैं नहीं समझता हूँ;

Vedic Mathematics से आज पूरी दुनिया परिचित हो रही है। Researches बताती हैं कि यह न केवल calculation के लिए, बल्कि बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए भी बहुत उपयोगी है। हमारे वेद, ऐसी विद्याओं के आगार हैं।

 

चिकित्सा के क्षेत्र में भी वेदों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। जो लोग मेडिकल सेक्टर से परिचित होंगे वह जानते होंगे कि जो चरक संहिता medical sector के लिए इतनी important है, उस चरक संहिता के श्लोक के अनुसार, “चिकित्सक अथर्ववेद के प्रति अपनी निष्ठा रखते हैं।”

वेदों का पूरी भारतीय संस्कृति पर जो प्रभाव रहा है उसे देखकर ही मैंने आपसे यह जिक्र किया कि भारत की संस्कृति का आधार ही वेद हैं।

 

मैं अपने सामने एक अच्छी ख़ासी संख्या देश के कर्णधारों, यानि छात्रों की देख पा रहा हूँ। मैं आप जैसे युवाओं से हमेशा संस्कार की बात करता हूँ। आपको भी भारतीय ज्ञान परंपरा से विशेष रूप से सीखने की जरूरत है। यह हमारी ज्ञान परंपरा ही है, जो हमें इच्छाओं पर नहीं बल्कि कर्मों पर ध्यान देने की शिक्षा देती है। इसमें एक उदाहरण से आप लोगों को बताना चाहूंगा।

 

वेदों की ऋचाओं में अनंत ज्ञान निहित है। और वेदों की शिक्षाएं सिर्फ मानव के लिए ही नहीं, बल्कि सृष्टि के समस्त जीवधारियों के लिए उपयोगी है। यहां मैं समस्त जीवधारियों का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं क्योंकि वेदों में मानव के कल्याण की बात तो है ही साथ ही साथ प्रकृति के हर तत्व को वेदों में एक देवता के रूप में देखा गया है।

आपको दुनिया में शायद ही ऐसी कोई संस्कृति मिले, जिसमें वृक्षों, नदियों, पहाड़ों यहां तक की जीव-जंतुओं में भी देवता का वास देखा गया है। कुटुंब की यह भावना यदि भारतीय संस्कृति में हमें देखने को मिलती है, तो इसका आधार केवल हमारी प्राचीन ज्ञान परंपरा है।

 

साथियों, मेरे अनुसार वेदों की जो सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है, वह है उनकी LONGEVITY, उनकी सनातनता। पीढ़ियां बदलीं, शताब्दियाँ बदलीं, सहस्राब्दियाँ बदलीं, लेकिन वेद आज भी प्रासंगिक हैं।

कुछ ऐसी चुनौतियाँ भी हैं, जिनका आज मनुष्य सामना कर रहा है, और उनके समाधान के लिए प्रयास कर रहा है, उन चुनौतियों के समाधान पहले से ही वेदों में उल्लिखित हैं। इनमें से एक का उदाहरण मैं आपको देना चाहूंगा।

 

जिस प्रकार पूरी दुनिया आजकल जलवायु परिवर्तन से गुजर रही है, और इसके समाधान के लिए हर जगह वृक्षारोपण का प्रयास किया जा रहा है, इसका समाधान ऋग्वेद में हमें दिखाई देता है। ऋग्वेद में भी वृक्षारोपण का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि, दश कूप समा वापी, दशवापी समोह्नद्रः। दशह्नद समः पुत्रों, दशपुत्रो समो द्रमुः। अर्थात, दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। यह श्लोक बताता है कि मानव के लिए जलाशय या तालाब जैसे जलस्रोत कितने महत्त्वपूर्ण होते हैं। उन्हें पुत्र से भी बढ़कर समझना, यह बताता है कि जल और जलस्रोतों के साथ हमारी कितनी अंतरंगता थी। इस प्रकार के ऐसे अनेक श्लोक हैं, जो वेदों में उपस्थित हैं, और वर्तमान समय की चुनौतियों का एक समाधान प्रस्तुत करते हैं।

 

 

कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो वेदों में जातिगत व्यवस्था मिलने का आरोप लगाते हैं। ऐसे लोग ना तो वेदों को अच्छे से जानते हैं, और न ही उन्होंने कभी वेदों का अच्छे से अध्ययन किया है। वेद, भारत की उस प्राचीन ज्ञान-परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें जाति के आधार पर नहीं, बल्कि कर्म के आधार पर वर्णों का उल्लेख है।

 

वेद तो उस विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म या गुण के आधार पर वर्ण व्यवस्था को देखा गया है। ऋग्वेद में तो एक कृतिकार के माध्यम से एक जगह यह भी कहा गया है कि-

कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना।

नानाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परिस्रव। अर्थात, मैं कवि हूँ और अपनी आजीविका के लिए कविताई करता हूँ, मेरे पिता एक वैद्य हैं, मेरी माता आजीविका के लिए अनाज पीसने का काम करती हैं। पूरा श्लोक तो और अधिक विस्तृत है, पर उसका भाव यह है कि हम एक ही परिवार के सदस्य होते हुए भी, अलग-अलग कर्मों का प्रतिनिधितत्व करते हुए, अलग-अलग जातिवाले हैं। ऋग्वेद का यह श्लोक बताता है कि वेदों ने हमेशा एक ऐसे समाज की रचना का प्रयास किया है जहां किसी प्रकार का भेदभाव न हो। वेदों ने हमेशा कर्म को प्रधान माना है।

 

वेदों से इतर भारत के अन्य प्राचीन शास्त्र भी कर्म को बहुत महत्व देते हैं। ‘निष्काम कर्म’ तो भारतीय ज्ञान परम्परा का एक ऐसा उपदेश है, जिससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई। जैसा कि मैंने अभी जिक्र किया, कि भारतीय ज्ञान-परंपरा हमें कर्मसिद्धांत की ओर ले जाता है और सबको उनके कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है। आप रावण को देख लीजिए, वह उस लंका का राजा था जो लंका उस समय दुनिया के सबसे संपन्न राज्यों में से एक थी।

 

कई बार भारतीय ज्ञान परंपरा और वेद-जनित चिंतनधारा पर यह आरोप लगता है, कि यहाँ समता, समानता और बंधुत्त्व की अवधारणा पर अपेक्षाकृत विचार नहीं किया गया है। यह अवधारणा यहाँ अगर पहुँची है, तो वह Western रेनेसौं अथवा French revolution के माध्यम से हमारे यहाँ पहुँची है। पर यह बात बिलकुल भी सही नहीं है।

यह जरूर है कि दुनिया के अनेक देशों की तरह भारत भी इन events से प्रभावित हुआ, और उनसे हमने सीख ली, पर समता और समानता की अवधारणा इनके बहुत पहले से, बड़ी गंभीरता के साथ हमारे प्राचीन ग्रंथों में विद्यमान है।

बल्कि उससे कहीं आगे बढ़ते हुए, मैं यह भी कहना चाहूँगा, कि west में तो मानव-मानव के बीच समता, समानता और बंधुत्त्व पर बात की गई है, पर हमारे देश में तो मानव के साथ अन्य प्राणियों, जीव-जंतुओं और जड़-चेतन तक के बीच समानता और उनके कल्याण की बात की गई है। समस्त प्राणियों, चर-अचर में ईश्वर के अंश होने का संदेश अगर दुनिया में कहीं से गया है,
तो वह हमारे और आपके देश भारत से ही गया है। वसुधैव कुटुंबकम के रूप में हमारे ऋषियों-मनीषियों द्वारा समस्त विश्व को एक परिवार मानने का आग्रह अगर दुनिया को कहीं से गया है, तो वह हमारे और आपके देश भारत से ही गया है।

 

साथियों, समानता की अवधारणा हमारे आदिग्रंथों में किस तरह व्याप्त है, यह मैं आप लोगों के सामने रखना चाहूँगा।अखंडमंडलाकारं, व्याप्तएवचराचरम कहकर इस देश में कण-कण में ईश्वर की संकल्पना इसीलिए की गयी है, ताकि मानव का मानव से ही नहीं, बल्कि सृष्टि के सभी अंगों के साथ तादात्म्य स्थापित हो सके। वेदों में मानवीय समानता और बंधुत्त्व की भावना को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।

ऋग्वेद तो यहाँ तक कहता है, कि ज्येष्ठासो, कनिष्ठास, एते सं भ्रातरो। यानि न कोई ज्येष्ठ यानि बड़ा है, न कोई कनिष्ठ यानि छोटा है, सभी भ्रातृभाव से आगे बढ़ें। प्राणिमात्र के प्रति समानता का इससे बड़ा भाव कहाँ मिल सकता है। समानता का यह भाव आर्यसमाज का प्राण था।

इसी प्रकार डेमोक्रेसी की बात करें, तो इसे west द्वारा दुनिया को दी गयी एक शासन पद्धति माना जाता है। पर हम वेदों का अध्ययन करें तो पाएँगे कि वहाँ पर हमें इसके मूल दिखाई देते हैं।

वैदिक काल में हमें ‘सभा’ और ‘समिति’ जैसी व्यवस्थाएँ देखने को मिलती हैं, जो मूलतः आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था की ही एक स्वरूप थीं। ये समाज विशेष की representative bodies हुआ करती थीं। अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है। ये संस्थाएँ राजा की गतिविधियों पर ध्यान रखती थीं। शासक अथवा राजा, समिति की बैठकों में भाग लेता था और समिति में राज्य की समस्याओं पर वाद विवाद भी होता था। इस प्रकार डेमोक्रेसी के सूत्र भी हमें वेदों में दिखाई देते हैं।

 

नारी-मुक्ति के बारे में भी कहा जाता है, कि यह west से मिला concept है। पर हमारे वेदों में women empowerment के भी महत्त्वपूर्ण सूत्र मिलते हैं। वैदिक काल में पुरुषों की तरह ही स्त्रियों को धार्मिक कार्य करने के अधिकार थे। नारियों के अधिकार पुरुषों से किसी मामले में कम न थे। वेदकालीन अनेक ऐसी भी नारियों के उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने ऋषियों एवं द्रष्टाओं की तरह ऋचाएँ रची थीं। इनमें गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, अपाला आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। स्त्री एवं पुरुष के सामाजिक एवं धार्मिक अधिकारों में कोई विशेष अन्तर न था।

 

इसलिए साथियों, हमें स्वामी दयानंद सरस्वती के वेदों की ओर लौटोके उस उपदेश पर विचार करना होगा, और वर्तमान जीवन के अनुरूप वेदों की नई-नई व्यखाएँ करनी होंगी।

वेदों के ज्ञान की नए सिरे से व्याख्या करने की जरूरत है, जिससे समाज को और सकारात्मकता मिले। हालाँकि अनेक ऐसे काम मेरी जानकारी में हुए हैं, आज भी हो रहे हैं। पर हमें इसे और बड़े स्तर पर करने की जरूरत है। हमें वेदों को लेकर भी अपने नजरिए को बदलने की आवश्यकता है। अर्थात वे अब हमारे लिए सिर्फ अध्ययन के ही नहीं बल्कि शोध के भी विषय होने चाहिए। हम सब देखते हैं कि दुनिया भर के विभिन्न स्थानों में अलग-अलग विषयों पर वेदों से ज्ञान अर्जित किया जा रहा है, तो क्या हम सभी भारतीय इस पर शोध करके इसमें से वर्तमान समय के अनुकूल कुछ तत्व नहीं निकाल सकते?

जैसा कि अथर्ववेद में लिखा भी हुआ है- विप्रा ऋतस्य वाहसा। अर्थात ज्ञानी ही सत्य के प्रचारक होते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है, कि आप सभी इस बात पर विचार करेंगे, कि कैसे वेदों पर शोध को बढ़ाया जाय, और उसके ज्ञान को आधुनिक समाज के विकास में प्रयोग किया जाए। सही मायने में यही स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा हंसराज के सिद्धांतों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी, जब हम वेदों के ज्ञान की अथाह समुद्र का मंथन करेंगे और उसके अमृत से भारत समेत पूरी मानवता को लाभान्वित करेंगे, और कृणवन्तो विश्वमार्यम्’; यानि ‘यह विश्व श्रेष्ठ बने’ के कथन को चरितार्थ करेंगे।

 

इसी के साथ, मैं आप सभी को शुभकामनाएँ देते हुए अपनी बात को समाप्त करता हूं।

आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।