Hindi Text of RM’s speech at Gita Mahotsav in Kurukshetra, Haryana
आज, अंतर्राष्ट्रीय गीता संगोष्ठी में, आप सभी के बीच उपस्थित होकर, मुझे बेहद खुशी हो रही है। मैं इस अद्भुत आयोजन के लिए, हरियाणा सरकार और प्रशासन को साधुवाद देता हूँ।
सरकार का काम आर्थिक, सामाजिक और तकनीकी विकास करना तो होता ही है, लेकिन इसके साथ-साथ सांस्कृतिक विकास भी सरकार की एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है। मुझे यह देखकर बड़ी ख़ुशी हो रही है, कि हरियाणा सरकार ने अपनी उस जिम्मेदारी को भी, बहुत ही जिम्मेदारी के साथ निभाया है। इस प्रकार के कार्यक्रम एक तरफ तो हमारी सांस्कृतिक यात्रा को दिखाते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ ये कार्यक्रम हमारी युवा पीढ़ी की चेतना के पुनर्जागरण में भी सहायक सिद्ध होते हैं।
साथियों, आज जब मैं भगवान श्री कृष्ण की ज्ञान की भूमि, कुरुक्षेत्र की इस पुण्य भूमि पर खड़ा हूँ, तो मेरा मन श्रद्धा से भरा जा रहा है। यदि हम अपने शास्त्रों के अनुसार देखें, तो यह वही धरती है, जहाँ पाँच हजार वर्ष पहले, मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी की पावन तिथि पर, समस्त मानवता के उत्थान के लिए, वह दिव्य ज्ञान प्रकट हुआ था, जिसे हम श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से जानते हैं। इस भूमि पर खड़े होकर वह क्षण आँखों में जीवित हो जाता है।
मुझे कभी-कभी लगता है, कि यदि किसी को भी भारत की आत्मा को समझना है, तो उसे कुरुक्षेत्र की धूल में उसका प्रतिबिंब ढूंढ़ना चाहिए। आप सोचिये, कैसा होगा वह दृश्य, जब अर्जुन हाथ जोड़े भगवान के सामने खड़े होंगे, और योगेश्वर कृष्ण ने मुस्कराकर गीता का एक-एक संदेश उन्हें दिया होगा। कुरुक्षेत्र की यह धरती, आज भी योगेश्वर श्री कृष्ण के उन प्रेरक स्वरों से गूँज रही है। उनकी ध्वनि, आज भी हमारे भीतर प्रतिध्वनित हो रही है। आप सब भी इस भावना को महसूस करते होंगे, कि यह धरती महज भूगोल का हिस्सा नहीं है, बल्कि यहाँ खड़े होकर अभी भी ऐसा लगता है, मानो श्रीकृष्ण की वाणी आज भी हवा में तैर रही हो।
साथियों, संदेह से भरे, द्वंद्व में खड़े, हृदय से विचलित, अर्जुन के सामने भगवान श्रीकृष्ण ने जो ज्ञान दिया था, वह केवल उस समय के लिए नहीं था, बल्कि आने वाली संपूर्ण मानवता के लिए था। गीता का पहला ही संदेश यह है, कि आत्मा न कभी जन्म लेती है न कभी मरती है। “न जायते म्रियते वा कदाचित्” यह श्लोक जीवन की अनिश्चितताओं के बीच हमें अद्भुत स्थिरता देता है। और यह केवल युद्धभूमि का संवाद नहीं था, बल्कि यह जीवन की हर परिस्थिति का मार्गदर्शन है।
पूरी गीता उठाकर जब आप पढ़ेंगे, तो आपको लगेगा कि, अर्जुन को जो कुछ भी समझाया गया, वह किसी एक योद्धा के लिए नहीं था, वह हम सभी के लिए था। आप खुद सोचिये, उस युग में अर्जुन जो clarity चाहते थे, युद्ध यानि कर्म का जो purpose चाहते थे, क्या आज के समय में हमें भी उसी clarity, उसी हिम्मत, और उसी प्रतिबद्धता की आवश्यकता नहीं है?
आज तो हम और भी ज्यादा मृगतृष्णा में उलझे हुए हैं। हमारे आसपास आज पहले से कहीं अधिक distraction है। कई ऐसे लोग हैं, जो जीविकोपार्जन के लिए काम तो कर रहे हैं, पैसे भी कमा रहे हैं, लेकिन उनको जीवन का असली उद्देश्य समझ नहीं आ रहा। तो वहीं दूसरी तरफ कई ऐसे लोग भी हैं, जो कर्म से ज्यादा उसके परिणाम की चिंता कर रहे हैं। मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं, जिनके अंदर पूरी क्षमता है, कि वह जीवन में कुछ बढ़िया कर सकते हैं, लेकिन वह कोई भी काम इसलिए नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उनके परिणामों को लेकर वह सशंकित हैं। इस तरह की अनेक उलझी हुई स्थितियों का सामना, आजकल हमारे आसपास के लोग कर रहे हैं।
साथियों, गीता कहती है, कि जीवन की व्यर्थ चिंताएँ, विकृत भावनाएँ और गलत धारणाएँ तभी मिटती हैं, जब हम अपने भीतर के सत्य को पहचानते हैं। यही कारण है, कि आज के दौर में, जब depression और मानसिक तनाव जैसी चीज़ें तेजी से बढ़ रही हैं, गीता का संदेश लोगों को नया संबल देता है। गीता पढ़कर विपरीत परिस्थितियों में उत्साहवर्धन और निराशा में आशा का संचार होता है। गांधीजी भी कहते थे, कि जितनी भी किताबें उन्होंने पढ़ीं, उन सब में उन्हें सबसे अधिक सांत्वना दो पुस्तकों से ही मिली: श्रीमद्भगवद्गीता और श्री रामचरितमानस। वे यह भी कहते थे कि जब उन्हें संदेह घेरते थे, जब निराशाएँ आती थीं, और जब कोई प्रकाश की किरण नजर नहीं आती थी, तब वे श्रीमद्भगवद्गीता की शरण में जाते थे। इससे वे तुरंत सांत्वना पाते थे और भारी से भारी दुःख के बीच भी तत्क्षण मुस्कराने लगते थे। गीता में दिए गए कर्मयोग की भावना, समत्व की सीख और आत्म-स्वरूप की पहचान हमें सुखपूर्वक जीने का मार्ग दिखलाते हैं। गीता न केवल आत्मचिंतन का मार्ग दिखाती है, बल्कि मन की उलझनों को सुलझाने के लिए therapy का भी कार्य करती है।
साथियों, जब-जब हम जीवन में उलझते हैं, गीता हमें दिशा दिखाती है। अगर हम यह मानें कि जीवन केवल एक बार मिलता है, तो उसकी कीमत केवल हमारी उपलब्धियों से तय होती है। लेकिन जब हम जीवन को कई जन्मों की यात्रा मानते हैं, तो सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है, प्रज्ञा यानी wisdom. हम इस बात को महत्व देते हैं कि हमारी समझ विकसित हो। यह समझ कि दुनिया क्यों है, हम यहाँ क्यों हैं, और बार-बार इस जीवन-चक्र से गुजरने का क्या अर्थ है। जब यह समझ विकसित हो जाती है, तब हम दूसरों पर नियंत्रण का प्रयास करना छोड़ देते हैं, और मुक्त हो जाते हैं। हम संसार में फँसते नहीं हैं।
इसलिए मैं तो मानता हूँ, कि यह गीता महोत्सव बस सामान्य आयोजन भर नहीं है, बल्कि यह हमें याद दिलाता है कि हमारा कर्तव्य क्या है। अर्जुन इसलिए उठ खड़े हुए, क्योंकि उन्हें कर्तव्य का बोध हुआ। कर्तव्य का बोध ही गीता का सबसे बड़ा योगदान है। हम सभी को अपने-अपने क्षेत्र में अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। कई बार लगता है कि रास्ता कठिन है, परिस्थितियाँ उलझी हुई हैं, लेकिन गीता कहती है “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” आपका अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं। यह line जीवन को सरलता देने के साथ-साथ, Heart और Mind दोनों को discipline भी देती है।
इसीलिए मैं अक्सर कहता हूँ, कि गीता महज एक ग्रंथ भर नहीं है, यह भारतीय management का सबसे पुराना और सबसे प्रभावी model है। leadership से लेकर किसी भी समस्या के समाधान तक हर जगह गीता का ज्ञान वास्तविक मदद करता है। जिस बात को आज दुनिया इतना प्रचारित करती है, वह बात श्रीकृष्ण ने पाँच हजार वर्ष पहले बता दी थी, कि मनुष्य का व्यवहार उसके विचारों से बनता है, और विचारों का शुद्धिकरण भक्ति और योग से होता है।
इसलिए आज दुनिया में गीता की स्वीकृति भी बढ़ती जा रही है। आज दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों में, गीता पर courses पढ़ाए जा रहे हैं। यह भी अद्भुत है कि गीता केवल आध्यात्मिक या धार्मिक ग्रंथ नहीं रही, बल्कि एक universal life guide बन चुकी है। अगर हम देखें तो दुनिया के अनेक बड़े विश्वविद्यालयों में आज गीता पर रिसर्च हो रहा है। यह कोई साधारण बात नहीं। यह प्रमाण है कि गीता का ज्ञान केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए है। कई विद्वान कहते हैं कि गीता ने उनको leadership, balance और decision-making में नई clarity दी। यही कारण है कि आज गीता Management, Psychology, Ethics, Law हर क्षेत्र में पढ़ी और समझी जाती है। यह इसलिए संभव हुआ है, क्योंकि यह ग्रंथ मानव जीवन को सबसे सरल और प्रभावी ढंग से समझाता है। दुनिया के तमाम विचारक और बड़े लोगों ने, जैसे, आइंस्टीन, थोरो, टी.एस. इलियट, एल्डस हक्सल इन सबको गीता पढ़कर लगा, कि यह मानव विकास का universal manual है।
साथियों, यह हमारे लिए गर्व की बात है, कि हमने इस ज्ञान को हजारों वर्षों तक सुरक्षित रखा, पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचाया, और आज यह दुनिया के लिए inspiration बन चुका है। अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स अपने साथ गीता लेकर अंतरिक्ष में जाती हैं। यह बताता है, कि इस ग्रंथ का प्रभाव कितना व्यापक है।
साथियों, गीता हमें यह भी सिखाती है, कि शक्ति और शांति एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। आज भारत विश्व में शांति का संदेश देता है। पूरी दुनिया भारत को शांति का प्रतीक मानती है। परंतु वास्तविकता यह है, कि शांति तभी टिकती है, जब उसके पीछे आत्मविश्वास और बल का सहारा हो। श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को यही सिखाया था, कि जो व्यक्ति धर्मसंगत मार्ग पर चलता है, वह कभी भयभीत नहीं होता।
पहलगाम का वह वीभत्स क्षण आज भी राष्ट्रीय स्मृति को विचलित करता है। वह दिन याद करिए, जब निर्दोष भारतीय नागरिकों को उनका धर्म पूछकर मारा गया। कितना क्रूर और कितना अमानवीय संदेश उन आतंकवादियों ने दिया था। वह घटना भारत की शांति-प्रियता को ही चुनौती दे रही थी। आतंकवादी और उनके सरपरस्त, ये मान बैठे थे कि भारत की शालीनता उसकी कमजोरी है। लेकिन वे भूल गए कि भारत गीता का देश है, जहाँ करुणा भी है, और युद्धभूमि में धर्म की रक्षा की प्रेरणा भी है।
हमने गीता के संदेश को याद किया, कि अगर शांति को जीवित रखना है, तो उसके भीतर शक्ति का ताप अनिवार्य है। यदि निर्दोषों की रक्षा करनी है, तो बलिदान देने का साहस भी उतना ही आवश्यक है। जो लोग हमारी सहिष्णुता को हमारी कमज़ोरी समझ बैठे थें, उन्हें ऑपरेशन सिंदूर के माध्यम से भारत ने ऐसा जवाब दिया, जिसे वो आजतक नहीं भूल पाए हैं। हमने दुनिया को दिखाया कि भारत लड़ाई नहीं चाहता, लेकिन यदि मजबूर किया गया, तो भारत लड़ाई से भागता भी नहीं।
साथियों, ऑपरेशन सिंदूर केवल एक सैन्य कार्रवाई नहीं थी, बल्कि वह भारत की आत्म-प्रतिबद्धता, आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास की उद्घोषणा थी। भगवान कृष्ण ने भी पांडवों को यही समझाया था, कि युद्ध बदले की भावना या महत्वाकांक्षा के लिए नहीं, बल्कि धर्मपूर्ण शासन की स्थापना के लिए भी लड़ा जा सकता है। स्वधर्म और स्वदेश की रक्षा के लिए लड़ा जा सकता है। Operation Sindoor के दौरान हमने भगवान कृष्ण के संदेश का ही पालन किया। इस ऑपरेशन ने विश्व को संदेश दिया कि भारत आतंकवाद के विरुद्ध न तो मौन रहेगा और न ही कमजोर पड़ेगा। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में समझाया था। धर्म की रक्षा केवल प्रवचन से नहीं होती, उसकी रक्षा कर्म से होती है। और ऑपरेशन सिंदूर वही ‘धर्मयुक्त कर्म‘ था।
आज हम सब यहाँ एकत्र हुए हैं, तो यह भी याद रखना होगा कि गीता केवल युगों की नहीं, बल्कि हर दिन और हर क्षण की साथी है। यदि हम इसे केवल धार्मिक ग्रंथ मानकर रख देंगे, तो इसका उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। कर्म की भूमि केवल कुरुक्षेत्र नहीं है, आज का भारत भी एक विराट कर्मभूमि है, जहाँ सैनिक सीमा पर, वैज्ञानिक labs में, किसान खेतों में और युवा स्टार्टअप में अपना–अपना धर्म निभा रहे हैं। गीता की असली शक्ति भी तभी प्रकट होगी, जब हम इसे अपने व्यवहार में, अपने निर्णयों में, अपने काम में, और अपने संबंधों में लागू करते हैं।
साथियों, आज का यह महोत्सव हम सबके लिए एक अवसर है, जहाँ हर व्यक्ति स्वयं से यह प्रश्न पूछ सकता है, कि क्या मैं अपने जीवन को गीता की रोशनी में देख पा रहा हूँ? क्या मैं अपनी जिम्मेदारियों को उतनी ही ईमानदारी से निभा रहा हूँ जितनी गीता हमसे अपेक्षा रखती है? क्या मैं चुनौतियों को देखकर पीछे हटता हूँ या अर्जुन की तरह उनसे ऊपर उठने का साहस करता हूँ? जब हम खुद से यह प्रश्न पूछेंगे, तभी गीता उन प्रश्नों का समाधान बनकर हमारे सामने आएगी।
संघर्ष तो सबके जीवन में है। जीवन में संघर्षों का होना बुरा नहीं, संघर्ष से हार जाना बुरा है। जीवन के तमाम संघर्षों से निपटने की शक्ति हमें इस पवित्र ग्रंथ से मिलती है। संसार के किसी भी युग में, किसी भी महाद्वीप में, मानव संघर्ष एक सा ही रहता है भ्रम, भटकाव, भय, निराशा, निर्णयहीनता। और जैसे अर्जुन उस क्षण मोहित थे, वैसे ही हम भी अपने जीवन के कुरुक्षेत्र में खड़े होते हैं। परंतु ठीक उसी क्षण हमें कृष्ण की वाणी को, उस अमृत-ध्वनि को भीतर जगाना होता है क्योंकि वही वाणी हमें जीवन की दिशा दिखाती है। गीता हमें यह सिखाती है, कि जीवन केवल सांस लेने का नाम नहीं, बल्कि अपने धर्म, अपने कर्तव्य और अपनी जिम्मेदारियों को निर्भय होकर निभाने की साधना है। गीता का एक श्लोक है, ‘सुखदु:खे समे कृत्वा, लाभा-लाभौ जया-जयौ।’ यह हमें सिखाता है कि सुख–दुःख, लाभ–हानि और जीत–हार को समान भाव से रखते हुए कर्तव्य निभाना ही सच्चा नेतृत्व है। ऐसा व्यक्ति ही, बिना विचलित हुए हर समस्या का समाधान खोजता है।
साथियों, आप जब गीता पढ़ते हैं, तो आपको पता चलता है, कि गीता के लगभग सात सौ श्लोकों में सभी वेदों का सार है। यानि गीता को ठीक से समझ लेने के बाद तो आपको, अन्य शास्त्रों के विस्तार में जाने की भी जरूरत नहीं है। गीता की शिक्षा संसार को बदलने की बात नहीं करती। वह बतलाती है, कि दुनिया हर पल, हर क्षण, स्वतः बदल रही है। इस Change को हमें Resist नहीं करना है। बस इसका आनंद लेना है। इसे Appreciate करना है। जो जैसा है उसे वैसे ही देखना है। वैसे ही समझना है। गीता हमें Emotional Intelligence सिखाती है। ज्ञानी व्यक्ति न अत्यधिक दुखी होता है, न अत्यधिक प्रसन्न। वह सुख-दुख को समान भाव से देखता है। अच्छा कार्य करने पर संतोष तो करता है, पर उन्माद नहीं। यानि गीता की शिक्षाएं सत्य देखने की ओर लेकर जाने का कार्य करती हैं।
इसलिए, मैं चाहूँगा, कि आज हम सब यहाँ यह संकल्प लें, कि हम कर्म करते रहेंगे, बिना फल की चिंता किए, बिना भय के, बिना मोह के निरंतर कर्म करते रहेंगे। हम यह संकल्प भी लें, कि जिस प्रकार कृष्ण ने अर्जुन को जगाया था, उसी प्रकार हम भी अपने भीतर के अर्जुन को जागृत करेंगे। और यदि हम ऐसा कर पाए, तो न केवल हमारा जीवन सुधरेगा, बल्कि हमारा समाज, हमारा राष्ट्र और हमारी आने वाली पीढ़ियाँ इस ज्ञान से प्रकाशित होंगी।
गीता की महानता और उसमें निहित शाश्वत ज्ञान के बारे में हजार बातें कही जा सकती हैं। लेकिन मुझे लगता है मुझसे कहीं अधिक, धर्माचार्यों और विद्वानों- मनीषियों द्वारा जो व्याख्यान इस विषय पर दिया गया हैं, अथवा दिया जाएगा। उसे सुनकर, हम सब अधिक आनंदित व लाभान्वित होंगे।
इस अद्भुत सम्मेलन के आयोजन के लिए मैं हरियाणा सरकार का, यहाँ के प्रशासन का, स्वामी ज्ञानानन्द जी महाराज का, और इस महोत्सव से जुड़े सभी stakeholders को बधाई देता हूँ।
मैं इस आयोजन की सफलता की कामना करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूँ।
बहुत-बहुत धन्यवाद।